भय
है पसरा उदासी छायी है
सब
पे इक जैसी घड़ी आयी है
कहाँ
मदद का हाथ बढ़ना था
कहाँ पे
लूट क़हर ढायी है
आदमीयत
की बाट सब करते
किन्तु
दौलत यहाँ की माई है
साँस
जाने को है कि अब उखड़ी
कुछ
को उसमें दिखे कमायी है
साँस
पर लाभ शर्म आती नहीं
परवरिश
छीनने की पायी है
अन्न
के बिन भी पेट है भारी
पूरे
दिन झूठी क़सम खायी है
पवन
तिवारी
३०/०५/२०२१
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