सारसों
सा करुण स्वर है
नदी
तट पर उसका घर है
रेत
पर चलना है उसको
और मीलों का सफर
है
रोज
ही बदले डगर है
और
अपरिचित नगर है
त्रास
के मौसम हैं वर्षों
हर्ष
का कुछ ही प्रहर है
विषमताओं
का मिला धन
शेष
सम्पत्ती सघन वन
है वहाँ निर्माण
करना
और
ऊपर है
वृहद् घन
अपनों
की आलोचना है
वैरियों
सी विवेचना है
फिर
भी तुमको शांत मन हो
नेह
से ही लोचना
है
उसमें कर्तव्यों
के घेरे
उसमें भी
हैं तेरे मेरे
क्या
निभा पाओगे बोलो
ये
ही हैं जीवन के
फेरे
पवन तिवारी
२०/०३/२०२१
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