ज़िंदगी
में
गद्य
से
अनुबंध था
और संघर्षों में मात्र
निबन्ध
था
छंद
लिखकर भी नहीं
मैं गा सका
मुझसे
मेरा
इस तरह सम्बंध था
जिसपे मेरा नेह था
अनुरक्ति थी
उसकी
तो धनवान पर आसक्ति थी
साधना
शब्दों की निष्फल हो गयी
गयी
ले उसे पोटली की शक्ति
थी
जिन्दगी
के आख़िरी क्षण आ रहे थे
गी त
मेरे अपरिचित भी गा रहे
थे
सिद्धियाँ
शब्दों को मेरे मिल गयीं थीं
गद्य
मेरे कविता सा मुस्का रहे
थे
जो
भी था अभिलषित होता जा रहा है
और मन कुछ
क्षरित होता जा रहा है
जब समय था
वो नहीं था और अब
आ रहा है
वो समय अब जा
रहा है
पवन
तिवारी
०४/०६/२०२१
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