हम
ही हम हों कैसी ये
अभ्यर्थना है
अन्य
के हित क्षरित कैसी प्रार्थना है
लोग
कैसे
कहाँ कितने गिर रहे
हैं
मनुजता
की रक्षा प्रभु जी अर्चना है
ये समय विकराल
होता जा रहा
है
समय
का भी काल होता होता जा रहा
कलि
अभी भी दूर पीछे आ
रहा है
व्यक्ति
ही कलि काल होता जा रहा है
हत्या अपने
ही लहू की
कर रहे हैं
और
मिथ्या दम्भ केवल
भर रहे है
एक रावण
त्रेता में केवल
हुआ था
यहाँ
तो हर नगर सीता
हर रहे हैं
एक
केवल राम
से होगा नहीं कुछ
सम्भल जाओ
अभी भोगा नहीं कुछ
धर्म
सा सब राम को धारण करो अब
शेष
सारा जाल है धोखा
नहीं कुछ
पवन
तिवारी
२६/०४/२०२१
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें