ऐसे
घाव भी होते
हैं जो खुद
से छिपाने पड़ते हैं
कुछ
पीड़ाओं के आँसू एकांत बहाने पड़ते हैं
फूट
नहीं पाते है वे दुःख चाहो
कहना फिर भी
अश्रु
जलों से बड़े समय तक रोज नहाने पड़ते हैं
ऐसी
पीड़ा अपनों से
ही छल प्रपंच
में मिलती है
प्रेम
की रस्सी कपट
अग्नि से धीरे- धीरे जलती है
तुमने
जिससे प्रेम किया
जब रोज वही
है छलता
सामने
जिस दिन सच आता साँसों की यात्रा खलती है
ऐसे
में सारे अपनों
पर छाता है
संदेह का घेरा
बड़ा
कठिन हो जाता है तब किसी एक को कहना मेरा
रोज
ज़िन्दगी थोड़ी मरती थोड़ा - थोड़ा जीना होता
ऐसे
में तन म न भटके है याद
न रहता अपना डेरा
ऐसे
में कुछ कहना मुश्किल कुछ कमजोर तो मर जाते हैं
कुछ
तो मरे मरे से ज़िंदा जैसे तैसे घर
जाते हैं
कुछ
अपवाद मेरे जैसे जो
कर लेते हैं मरने का प्रण
अँधियारे
इतिहासों में भी नया सवेरा कर
जाते हैं
पवन
तिवारी
२०/०४/२०२१
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें