भोर
नहीं अब बतियाती है
रात
नहीं हँसकर आती है
तुलसी
कब की सुख गयी है
दीपक
में केवल बाती
है
थोड़ा – थोड़ा रोज मरा
हूँ
सुलग-सुलग
कर रोज जरा हूँ
चेहरा
शेष रह गया अब तक
सो लोगों को
लगे हरा हूँ
हर क्षण मुझको
तड़पाती है
फिर
भी उसकी सुध आती है
कितना
प्रेम रहा है उससे
पीड़ाओं
को भी भाती
है
षडयंत्रों
से वो मारी है
झूठ
पे झूठ मगर हारी
है
ऐसे
में वो झुंझला करके
देती
गारी पर गारी है
सो शब्दों के द्वार आ गया
जीने
का आधार पा
गया
सारे
दुःख इसके घर रखता
एक
नया परिवार पा गया
पवन
तिवारी
१९/०४/२०२१
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