कुछ
करो ऐसा कि जग में राहत रहे
हिय
किसी का कभी भी न आहत रहे
बीज बोते
चले जाइए स्नेह
के
अंकुरित
अनवरत होती चाहत रहे
आदमी
अपना ही सच्चा साधक रहे
प्रेम
क्यों न हृदय का उपासक रहे
प्रेम
ही शांति का पथ प्रदर्शक रहा
नेह
करुणा का जग सारा वाचक रहे
मन
भले प्रौढ़ हो हिय तो बच्चा रहे
कर्म
करते हुए मन भी अच्छा रहे
जग
में गुण से अधिक दोष की व्याप्ति है
फिर
भी सच के लिए भाव सच्चा रहे
दुःख
का सागर है जग फिर भी आशा रहे
गंगा
के रहते
कोई न प्यासा
रहे
अपनी
संस्कृति सदा प्रेरकों की रही
कुछ
भी हो संयमित अपनी भाषा रहे
पवन
तिवारी
१६/०४/२०२१
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