किसी किसी दिन विचार आते हैं
डंडा
लेकर !
मन
को हाँकने,
शब्दों
की ओर
ताकि
कर सकूँ उन्हें लिपिबद्ध
और
मैं कर देता हूँ विद्रोह !
पढ़ता
हूँ नये - नये शब्द
किसी
किसी दिन मन
जोर
देकर कहता है , सुनाओ
ख़ूब
सुनाओ ! और मैं,
कर
देता हूँ प्रतिकार और
सुनता
हूँ किसी ऐसे की बात
जो
सुनाना तो चाहता है ख़ूब,
किन्तु
उसे कोई नहीं सुनता !
किसी
दिन जब
ऐसा
करके लौटता हूँ .
मेरे
चेहरे पर
एक
गुदगुदी सी होती है;
मैं,
हँसी को दबाता हूँ तो,
वह
विद्रोह कर देती है और
अकेले
रास्ते पर
पागलों
की तरह
ठहाके
लगाने के बाद
कहीं
गहरे
ख़ुद
में डूब जता हूँ !
तब
का भाव
न
व्यक्त कर पाना ही
मेरी श्रेष्ठ रचना होती है !
पवन
तिवारी
०५/०४/२०२१
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