प्रेम में चाहत प्रथा है
जाति का आधार कैसा
प्रेम में प्रतिकार कैसा
और उपसंहार कैसा
प्रेम तो शाश्वत रहा है
प्रेम में उपकार कैसा
प्रेम तो केवल समर्पण
प्रेम में आभार कैसा
प्रेम सुंदर सर्जना है
स्वार्थ की ही वर्जना है
प्रेम में विश्वास ही सब
गौण इसमें गर्जना है
सच्चे प्रेमी जानते हैं
करना है व्यवहार कैसा
प्रेम षड्यंत्रों से भागे
प्रेम तो प्रतिक्षण ही जागे
प्रेम में ठहराव चाहिए
जो न समझे वे अभागे
प्रेम में निर्माण केवल
प्रेम में संहार कैसा
प्रेम हिय से सोचना है
शेष तो आलोचना है
इसमें बाधाएं बहुत हैं
प्रेम से ही मोचना है
प्रेम में कर्तव्य केवल
फिर कहो अधिकार कैसा
पवन तिवारी
२७/०३/२०२१
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें