प्रति प्रात
ही पंछी चहकते
और झोंके भी बहकते
भानु भी प्रतिदिन हैं आते
पुष्प भी प्रतिदिन महकते
पवन भी चलता निरंतर
रात्रि में ना कोई अंतर
शीत, वर्षा, ग्रीष्म आती
इनको रोके कौन जंतर
अब भी पर्वत कुछ न कहता
सारी पीड़ाओं को सहता
शशि था जैसा वैसा ही है
अब भी घटता बढ़ता रहता
दुख हजारों सह रही हैं
फिर भी नदियां बह रही हैं
केलों से करुणा नहीं है
बेरें अब भी कह रही हैं
तू भी बढ़ता चल चला चल
देख सरिता का यह कल कल
समय को रुकते हैं देखा
चलता रहता ही है पल-पल
कर्म में विश्वास रख तू
दृढ़ता से हर चाप रख तू
ध्येय होना सिद्ध निश्चित
स्वयं से बस आस रख तू
पवन तिवारी
२८/०३/२०२१
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