मुझसे
लड़ते लड़ते लड़ते
विपदाओं
पर विपदा आयी
दुःख
विचलित करने चला मुझे
उसकी
भी बाहें भर आयी
त्रासदियों की घटनाओं का
कोई
ओर न था कोई छोर न था
ऐसा
लगता अंधियारा बस
अब
भोर पे कोई जोर न था
मेरा
पथ बिलकुल अलबेला
कुछ
फब्तियाँ थी कुछ ताने थे
हिंदी
से प्रेम किया था सो
अपमान
मिले जो खाने थे
जैसे
– जैसे बढ़ता था मैं
पथ
होता जाता था संकरा
कुछ
पीछे से चिल्लाते थे
क्यों
बनता है बलि का बकरा
मैं
सहज भाव से बिन सोचे
भाषा
की उंगली थाम लिया
गीत
कहानी हिंदी कविता
जैसे चारो
धाम लिया
साथ चलूँगा कविता के मैं
सब
दुत्कारे सब कोसे थे
देख मेरा साहित्य से नाता
हमसे अपने तक रोषे थे
माता
भगिनी भ्राता सन्तति
सबके
सब ही मुख मोड़े थे
भार्या
की बात कहूँ मैं क्या
उसने संबंध ही तोड़े थे
कितने
कटु वचन सुने प्रतिदिन
कितनी
पीड़ाएं झेली हैं
ये आभा तब जाकर आयी
खुशियाँ
अब आँगन खेली हैं
पहले
अनाथ सा लगा रहा
अब
संबंधी उग आये हैं
जो
पागल कल तक कहते थे
अब
गीत हमारे गाये हैं
पवन
तिवारी
३१/०३/२०२१
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें