नदियों
के भी उर फाटे हैं
देख
दरारें आया हूँ
जंगल
की ग्रीवा काटे हैं
लतपथ
देख के आया हूँ
हवा
की साँसें फूट रही हैं
घुटते
देख के आया हूँ
पानी
का चेहरा मटमैला
आँसू
देख के आया हूँ
दुबके
– दुबके जुगनू देखे
अधियारों
से आया हूँ
डरते
हुए प्रात को देखा
किस
दुनिया में आया हूँ
नैतिकता
अब बूढ़ी दिखती
उसके
घर हो आया हूँ
स्वारथ
का पागलपन देखा
जान
बचाकर आया हूँ
खादों
की मनमानी देखी
खेत
से होकर आया हूँ
गाँवों
की नादानी देखी
बाग़
से मिलकर आया हूँ
अनदेखा
कर दूँ क्या देखूँ
किस-किस
दृश्य से आया हूँ
हँसते-हँसते
गाँव गया था
रोते
- रोते आया हूँ
पवन
तिवारी
०१/०४/२०२१
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