प्रेम
पहले बहुत वे
जताते रहे
हम
थे अनभिज्ञ वे ही बताते रहे
प्रेम
का द्वार हमने भी खोला तो वे
ये
किया क्या वे कहकर सताते रहे
प्यार
की कल्पना में चुभा दी
हुई
हँसने
वाला था लेकिन हँसी ना हुई
एक
छल से स्वपन सब कलंकित हुए
प्रेम
की राह फिर प्रेम की ना हुई
वादा
करके भी इक बार आये नहीं
थे
बुला सकते लेकिन बुलाये नहीं
हमने
भी चाह के पग बढ़ा फिर दिए
हम
गये द्वार पर भी, वो आये नहीं
हम
जलाते रहे प्रेम के दीप को
वो गये पूजने
रूप के रूप को
देवताओं
के दर प्रार्थना मैंने की
वे
निहारा किये अर्थ के कूप को
वो
कहीं और ख़ुद को झुकाने लगी
देवता
शर्म से चुप सभी हो गये
बातें
उनकी हवा बुदबुदाने लगी
ऐसे
में प्रीति को गीत में लाया मैं
पीड़ा
को शब्द में लाके बहलाया मैं
और जग सोचता ख़ूब गाता हूँ मैं
इस
तरह कविता में खुद को ले आया मैं
पवन
तिवारी
संवाद
– ७७१८०८०९७८
१९/११/२०२०
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