प्रेम के जलते दीये में जल है डाला
प्रेम की खातिर मैं फिर भी जल रहा हूँ
कैसे खुद के प्रेम को बदनाम
कर दूँ
उसके खल पर चुप हूँ
खुद को छल रहा हूँ
सच है उसने हिय को बेरहमी से तोड़ा
किन्तु साहस के
सहारे चल रहा
हूँ
जिस कलम को वो
निकम्मा कह गया है
उस कलम के ही सहारे पल
रहा हूँ
जिस दीये को तुम बुझाना चाहते हो
एक दिन उसके उजाले में चलोगे
यज्ञ की हूँ अग्नि
मुझको मत बुझाओ
ऐसा करके भी भला
फूलो फलोगे
तुम गहोगे प्रेम को यूँ शस्त्र
जैसा
प्रेम को यूं अर्थ की
खातिर छलोगे
अर्थ खुशियाँ दे हमेशा सच
नहीं है
आचरण को खोते ही
तुम भी गलोगे
चाहते हो तुम मुझे जग में गिराना
हाँ, गिरूँगा गंग की
जलधार बनकर
डूब जाऊँ मैं कि अँधियारी गुफा में
हाँ,मैं डूबूँगा मगर
ज्यों सांध्य दिनकर
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
१/०८/२०२०
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