पहले मैं संध्या को आता
सबसे पहले दिया जलाता
दोनों में अभिवादन होता
दोनों का चेहरा खिल
जाता
अब दोनों उदास मिलते
हैं
ख़ुद में ही दोनों जलते हैं
है अपराध बोध दीपक को
मेरे चुप से
वे घुलते हैं
उसने मुझको गलते देखा
अपनों द्वारा छलते देखा
मेरे चेहरे की आभा को
उसने केवल ढलते देखा
अब दीपक पे नज़र जो
जाती
उसकी लौ मद्धम
हो जाती
उसके लौ की सहज ही
मस्ती
मुझे देखते ही खो जाती
खुद की करता खुद
निंदा है
ज़रा - ज़रा सा ही
ज़िन्दा है
षड्यंत्रों को देख के चुप था
इसीलिये वो शर्मिंदा
है
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
३१/०७/२०२०
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