फूस की छप्पर
जो टपकती थी बारिश
में,
माटी की दीवार
जो झरती रहती थी
साल-दर-साल !
घर का खपरैल और नरिया
जो अक्सर बंदरों की
धमाचौकड़ी
या बिल्लियों की
लड़ाई में
जाता टूट !
रसोई की पपड़ी छोड़ती
माटी
कड़वी नीम की दातून
जाड़े में उठाना गाय
का गोबर
नंगे पाँव घुटने तक
पानी में
बारिश से भीगते हुए
खेत में रोपना धान
सब लगता था बुरा
दिलाता था पिछड़ेपन
का आभास !
रोज सुबह जब पीनी पड़ती
गुड़ की काली चाय
अपने बाऊ जी पर आता
खीझ के साथ विकट
क्रोध
पड़ोसियों के बाऊ जी
की तरह
क्यों नहीं हैं
साहब,
पटवारी, लेखपाल या
परधान
क्यों नहीं करते
सरकारी नौकरी
क्यों करते हैं किसानी
?
क्यों हैं गरीब ?
और डूब जाता दुःख
में
सहपाठी को लेमनचूस
चूसते
देखता हुआ उदास
उसी क्षोभ और दुःख
ने छुड्वाया गाँव
अब जब उम्र का
एक बड़ा हिसा बीत
जाने पर
लौटता हूँ जब भी
गाँव
खोजता हूँ बड़ी शिद्दत
से
वही दुःख के सामान
वही खपरैल की छत
वही माटी की झरती
दीवार
वही गुड़ की काली चाय
वही लेपी हुई
पपड़ियों भरी रसोई
उन्हें न पाकर हो
जाता हूँ और दुखी
हाँ, एक दिन मिली थी
गाँव में
किसी के घर गुड़ की
चाय
बड़ी खुशी मिली थी.
पर उन्होंने पिलाई
थी
सकुचाते हुए और शर्म
से
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
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