जहाँ जरूरी मेड़ बांधते
ऐसे ही वे हमें साधते
ऊसर को गोबर
से पाटें
बिगड़े को इस तरह नाधते
तालाबों को गहरा करते
आम के बाग़ में पहरा करते
काट – काट के आलू बोते
फसल के साथ में लहरा
करते
पैरों से मिट्टी को खमसते
इसी तरह से उसे समझते
गाय के पुट्ठे को सहलाकर
उसके मन के भाव परखते
खेत की माटी हाथ से
मलते
मेड़ पे नंगे
पाँव ही चलते
धान निहारें खेत में घुस
के
बीजों सा खेती में ढलते
बारिश हो तो खेत भागते
करें सिंचाई रात जागते
नील गाय जब खेत चरे तो
सुतली वाला बम्म दागते
घुटने तक धोती लिपटाए
खेत में सांड़
तो दौड़े
आये
मटर रखाते शीत लहर में
मन उलझे तम्माखू
खाये
ठंड लगे तो आग जलाते
उसी में भून
के आलू खाते
कनपट्टी पर बाँध
अंगोछा
मन आये तो टेर के गाते
ई हमरे बाबू
जी किसान हैं
हमरे ही नहीं
देश की जान हैं
कहने को कोई कुछ भी कह दे
गाँव सहर क्या सबके प्रान हैं
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
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