प्रकृति के प्रताप
को प्रकोप तुम समझ रहे
और निज प्रकोप
को प्रताप ही कहते
रहे
शर्म किन्तु
लेशमात्र भी तुम्हें
आयी नहीं
विकास का लगा के पट
विनाश खेलते रहे
जिसने दी छाँव तुम्हें उसे काटते गये
जिसने सच बोला
उसी को डाँटते गये
नदी नाले ताल झील जल
के जो भी श्रोत थे
निज अहं व स्वार्थ में उन्हीं को पाटते गये
जो हमारे गर्व
के पहाड़ थे
ढहा दिए
स्वास्थ्य के अरण्य
श्रोत को भी तुम जला दिये
ये गगन जो प्रेरणा व हर्ष का प्रतीक था
उसको भी विषाक्त धुंध लेपकर
मिटा दिये
नभ जल व धरती
को त्रास दिए जा रहे
जिस प्रकृति ने है पाला उसको ही खा रहे
अब जो सहनशीलता जवाब उसकी दे रही
कोस रहे हो
तिस पर हाय मरे
जा रहे
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
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