तुम लगती हो हरदम
मुझको, फागुन सावन सी
तुम आती हो तो लगता
है ऋतु वसंत आवन सी
तुम प्रियतम हो,तुम
अनुपम हो और कहूँ क्या मैं
इक-इक भाव-भंगिमा
तुम्हरी लागे मन भावन सी
एक अभिलषित अभिलाषा
हो युगों - युगों से तुम
तुम ऐसे शोभित हो
जैसे - मस्तक पर कुमकुम
खुले हुये नयनों के
सपनों से ओझल गर होती हो
आह्लादित उर अगले ही
क्षण हो जाता गुमसुम
जब से हिय के द्वार हुई
है प्रेम की यह दस्तक
बंद पड़ी मेरे जीवन
की खुल गयी है पुस्तक
तुम्हें समर्पित
क्या कर दूँ मैं वचन दूँ क्या प्रियवर
तुम्हरे लिए निछावर
कर दूँ जब कह दो मस्तक
कोई दस्तक कोई पुस्तक
कोई मस्तक ना चहिये
जैसे हो वैसे रहना
बस प्रेम तुम्हारा ही चहिए
अभिलाषा तुम से कोई
ना किसी तरह की है प्रियवर
तुमसे तो विश्वास के
पूंजी वाली गठरी बस चहिये
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
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