शहर से गाँव फिर पहुंचा मैं
वर्ष के अंतराल पर
इस बार और कई नई पक्की दीवारें देखी
घर की दीवारें होतीं तो और बात होती
ये दीवारें ‘तेरे-मेरे’ वाले फासले की दीवारें थीं
बँटवारे की दीवारें अचानक इतनी सारी देखकर
खिन्न हो गया था मेरा अंतर्मन
इन नई दीवारों ने कर दिए थे बंद
कई पुराने रास्ते,इस छोर से उस छोर तक
पहुँचाने वाली गलियों के मुँहाने और
और दो दिलों के जुड़ने के भी रास्ते
एक नई दीवार तो ऐसी बनी है कि
मुझे बाबा के घर जाने के लिए अब
गाँव की पूरी एक परिक्रमा करनी पड़ेगी
जो इस दीवार से पहले सिर्फ दो गज थी
इन नई उठी दीवारों ने
कई मटमैले घरों और
कई पहचाने चेहरों को ढक दी है
जो नहीं देखना चाहते सुबह- सुबह
अपने पड़ोसी का मुँह
उठा देते हैं,नई दीवारें
बदल रहा है गाँव तेजी से
कई घरों में आ गये हैं ढेरों धन
उसने बढ़ा दी है दूरियाँ
गाँव में बढ़ती अ,समान अमीरी
बाँट रही है भाई को भाई से
बहुत साल पहले या सबसे पहले
जब मैं था शायद अबोध
मेरे घर और द्वार पर भी
उठी थी बँटवारे की नई दीवार
बेहद खतरनाक ढंग से अचानक
आँगन,दालान,बरामदा और फिर द्वार
खड़ी कर दी थी सभी जगहों पर
इसी तरह नई,पक्की,सीमेंट की दीवार
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ सालों बाद
पता चला हमारे गाँव में
कहते हैं इसे ‘डंड़वार’
जिसनें बाँट दिया था
एक घर को दो हिस्सों में
सब आधा –आधा था
आंगन का नल चाचा के हिस्से में
नाभदान हमारे हिस्से में
दालान में जांते की जगह हमारे हिस्से में
दालान का दरवाजा उनके हिस्से में
बरामदे की कोठरी,दरवाजा उनके हिस्से में
बड़ा वाला जंगला हमारे हिस्से में
द्वार का नल उनके हिस्से में
नीम का पेड़ हमारे हिस्से में
बंटा था और भी बहुत कुछ
तब से आज तक बँटवारे की
दीवारें लगातार बार–बार
उठाती ही जा रहीं हैं साल-दर–साल
जो कमा रहे हैं भरपूर पैसा
कहीं भी,शहर कस्बे या गाँव में
उठा रहे हैं वही दीवारें अपने हिसाब से
गाँव का फायदा ही नहीं
पैसे ने किया है बहुत सा नुकसान भी
रिश्तों का,अपनेपन का,संवेदना का
गाँव में अभी और दीवारें उठावायेगा ये पैसा
अलगाव भी करवाएगा,
क्या हम रोक सकते हैं...?
इन बँटवारे की उठती इन दीवारों को
poetpawan50@gmail.com
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