जब घर पहुंचता हूँ
मैं.
बेटी पापा कहके
मुस्करा देती है .
और हरा हो जाता हूँ
मैं.
थके –थके बाजुओं में जब वो,
उछल कर समा जाती है.
मेरे थके बाजुओं में
फिर से,
नई जान आ जाती है.
मेरी अधपकी दाढ़ी वाले
गालों पर,
जब वो अंकित करती है
कोमल चुम्बन.
तो मेरे उदास मटमैले
चहरे पर,
नई ताज़गी और खुशी जड़ देती है.
परिस्थितियों को
देखकर मरना चाहता हूँ,
और जब बेटी सामने
होती है तो जीना चाहता हूँ.
हजार दुखों का जवाब
है बेटी,
सच में जिन्दगी के गले का हार है बेटी .
poetpawan50@gmail.com
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