यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

आइये हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान दिलाएं


मित्रों ''हिन्दी बने राष्ट्रभाषा अभियान'' नाम से एक आन्दोलन मुंबई से प्रारम्भ हुआ है. इसकी शुरुआत पत्रकार बिजय जैन ने शुरू की है. अपने प्राथमिक प्रयासों में उन्होंने स्व खर्चे से दिल्ली,कलकत्ता,लखनऊ,मुंबई में सम्मेलन व पत्रकार सम्मेलन किये. मैं हिन्दी का एक अदना सा सिपाही हूँ.अपने स्तर पर हिन्दी के लिए प्रयासरत रहता हूँ. ''हिन्दी बने राष्ट्रभाषा'' अभियान के तहत २० अक्तूबर को हम भोपाल हिन्दी भवन में रहेंगे. इस अवसर हिन्दी के अनन्य प्रेमी एवं महान जैन मुनि आदरणीय श्री विद्यासागरजी अपना संदेश देंगे. जो भी मित्र भोपाल से हैं.उनसे विनती है वे जरूर आयें.मुझे बिजयजैन जी ने इस आन्दोलन से जोड़ा. मैं उनका आभारी हूँ. मुझे खुशी है कि मुझे हिन्दी की सेवा का एक और मौका मिला है. मैं इस आन्दोलन का राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं सलाहकार भी हूँ. इस नाते मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. इसमें आप सभी मित्रों, शुभ चिंतकों ,हिन्दी और राष्ट्र प्रेमियों का तन,मन,धन से सहयोग चाहिए. नये वर्ष २०१७ में १०जनवरी को ''विश्व हिंदी दिवस'' के अवसर पर मुंबई से दिल्ली तक ''हिन्दी रेल यात्रा'' का आयोजन किया जा रहा है.जिसमें हिन्दी के अनेक सिपाही शामिल होंगे. आप भी इसमें योगदान करें.कैसे योगदान कर सकते हैं ? ये आप स्वयं निर्णय करें. आइये हिन्दी को उसका वास्तविक सम्मान दिलाएं. एकराष्ट्र भाषा विहीन राष्ट्र को उसकी राष्ट्रभाषा दिलाएं. साथ ही समस्त भारतीय भाषाओँ के उचित सम्मान के लिए भी आवाज़ उठायें. भारत को सचमुच सम्मान देना चाहते हैं तो हिन्दी को सम्मान दीजिये. आप यदि अधिक कुछ नहीं कर सकते तो अपना संवाद, लेखन,परिचय और हस्ताक्षर अपनी मातृभाषा या हिन्दी करें. अपने घर में अपने शिशुओं एवं बच्चों से मातृभाषा या हिन्दी में प्राथमिक संस्कार के शब्द के उपयोग करें.ये योगदान भी देश,संस्कृति और भाषा के लिए कम नहीं होगा. हमें इण्डिया नहीं भारत चाहिए और यदि आप भारत को भारत बनाये रखना चाहते हैं तो आप को भारतीय भाषाओँ और हिन्दी को पूरे मन से अपनाना होगा. बहुतों की चिंता होगी कि भारतीय भाषाएँ पेट की भाषा नहीं हैं अर्थात रोजगार की भाषा नहीं हैं. ऐसे में हमारी संताने आगे अपना जीवन सहजता से कैसे जियेंगी.ये हर पालक की चिंता है और जायज भी है किन्तु इसका समाधान भी है. हाँ नये समाधान से थोड़े दिन कष्ट तो होंगे पर आप यदि थोड़े धैर्य से साथ देंगे तो सम्मान जनक, सुन्दर और स्थाई समाधान मिलेगा. भारतीय भाषाओँ से आज भी रोजगार मिल रहे हैं पर कम..... जैसे सिनेमा.... रेडियो... साहित्य... आदि. हिन्दी को राष्ट्रभाषा का संवैधानिक दर्ज़ा सबसे पहले दिलाना होगा. उसके बाद शिक्षा,रोजगार, न्याय और संवाद का माध्यम भारतीय भारतीय भाषाओँ को संवैधानिक रूप से बनाना होगा.फिर किसी विदेशी भाषा के वैसाखी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.जैसे माँ कभी बुरी नहीं होती उसी तरह कोई भाषा भी बुरी नहीं होती.पर कोई भी सबसे अधिक प्यार अपनी ही माँ को करता है. बातों-बातों में अपनी माँ का ही जिक्र करता है कि मेरी माँ कढी बहुत अच्छा बनाती है या मेरे माँ के हाथ का साग लाजवाब होता है. पर ऐसा आप अक्सर अपने माँ के बारे में कहते हैं दूसरे की माँ के बारे में नहीं कहते. फिर भाषा के मामले में आप दूसरे के भाषा का गुणगान कैसे करते हैं ? इसका अर्थ ये हुआ कि या तो आप ने उससे गुणगान करने के लिए रिश्वत ली है या आप उसके गुलाम हैं या फिर आप दिमाग में लोचा किया गया है और आप को आप की माँ के खिलाफ भड़काया गया है कि आप की माँ बुरी और असभ्य और गंवार है और ये सुधरने वाली नहीं ऐसे में आप फलां की माँ को माँ बना लो वो आधुनिक,सभ्य और गोरी है. मुझे लगता ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि हमारी माँ [हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाएँ] के साथ यही दुष्चक्र रचा गया है.इस दुष्चक्र से बाहर निकलने का समय आ गया है मेरे प्यारे देश वासियों. शायद आप भूल हए हो या आप को भुलावे में रखा गया है कि आप को आज़ाद हुए ७० वर्ष हो गये और आप अभी भी अपने को गुलाम महसूस कर विदेशी मालिक की माँ को माँ कह रहे होऔर अपनी माँ को दासी समझ रहे हो.जबकि अब विदेशी आप का मालिक नहीं है.७० वर्ष हो गये गुलामी से मुक्ति मिले पर मानसिकता गुलामी वाली बनी हुई है. चाँद लोग अपने स्वार्थों के लिए इसको आप के मन में बनाये रखना चाहते हैं. इन्ही चाँद लोगों से हमें मिलकर मुकाबला करना है. यही चन्द लोग विदेशी भाषा के माध्यम से पूरे देश पर आज भी राज कर रहे हैं. हम इनके गुलाम हैं....... मुझे महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं। उन्होंने एक बार हिंदी और विकास नामक लेख में लिखा था कि - यदि किसी समाज का निम्न वर्ग उन्नति करेगा। तभी पूरा समाज उन्नति करेगा और उसके उत्थान का यह कार्य किसी विदेशी भाषा के माध्यम से संभव नहीं । क्योंकि भाषा का सवाल सीधे रोटी का सवाल होता है। एक दूसरे लेख "हिन्दी के विभीषण" में लिखते हैं - जो आजाद भारत में भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहे और ख़ूब पैसा खर्चा करके अंग्रेजी पढ़ाते हैं। वह हिंदी को क्यों पसंद करने लगे ? ऊंची नौकरियों की प्रतियोगिता के लिए हिंदी या प्रादेशिक भाषाओं को माध्यम मान लेने पर सब धान बाईस पसेरी हो जाएगा । कानवेंट की घुट्टी पिलाने वाले या यूरोपियन स्कूलों में पढ़ने वाले लड़कों के पास ही प्रतिभा की इजारेदारी है, यह कोई नहीं मानेगा। हिंदी में प्रतियोगिता होने पर उनके लिए सफलता अत्यंत संदिग्ध है । इसलिए उनके माता-पिता जिनमें देव - महादेव से लेकर बड़े-बड़े नौकरशाह तक शामिल हैं । कभी पसंद नहीं करते कि अंग्रेजी हटे। एक जगह वह लिखते हैं - चाहे दिल्ली के देवता कितने ही शाप देते रहें, अपनी मातृभाषा और मातृ संस्कृत के प्रति लोगों का प्रेम कम नहीं हो सकता ।
मित्रों यदि हिंदी राष्ट्रभाषा बनती है तो सबसे पहले अंग्रेजो के पिठ्ठू रहे और आज की व्यवस्था को संचालित करने वाले अधिकारी, प्रशासन खुद व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे। 95%आम आदमी शासन-प्रशासन में अपनी हिस्सेदारी सहजता से पा लेगा और यह 5% देश को हांकने वाले बाहर हो जाएंगे। तब आएगा असली लोकतंत्र , असली आजादी, वास्तविक विकास, लेकिन उससे इन 5%लोगों की लूट, मौज, तानाशाही खत्म हो जाएगी। जो यह किसी कीमत पर होने नहीं देना चाहते । 

हम विदेशी भाषा के विरोधी नहीं है.बस यह हम पर थोपी न जाय. एक वैकल्पिक भाषा के रूप में रहे.जिसे रूचि हो वो पढ़े. साथ ही चीनी,रूसी  फ़्रांसीसी,जापानी जैसी भाषाएँ भी पढ़ने-पढ़ाने का विकल्प हो क्योंकि इन देशों से भी हमारे आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध हैं खासकर चीन की मंदारिन. क्योंकि प्रतिस्पर्धी और विरोधी की भाषा सबसे पहले सीखनी चाहिए.तभी उसकी नीतियों,चालों और बातों को समझ सकेंगे और तभी सही जवाब से सकेंगे. खैर बात लम्बी हो गयी ,पर बात जरुरी थी. तो आइये हिन्दी जियें, खाएं-पियें उठें बैंठे, सोयें-जागें,सपनें देखें, गप्प करें, प्रेम करें ....सब करें सिर्फ हिन्दी और भारतीय भाषाओँ में...... आप इसे अधिक से अधिक साझा करें... प्रचारित करें ....प्रसारित करें...... हिन्दी के साथ जियें. हाथ जोड़कर विनती करता हूँ ... मेरे लिए नहीं...हिन्दी के लिए... देश की तमाम भाषाओँ के सम्मान के लिए...भारत के लिए आइये साथ चलें .... पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण सब ओर भारतीय भाषाओँ के साथ हिन्दी में भी चलें ....इस आन्दोलन से जुड़ने के लिए, हमसे जुड़ने या सम्पर्क करने के लिए सम्पर्क करें ...
पवन तिवारी- ९९२०७५८८३६/७७१८०८०९७८/९०२९२९६९०७
ईचिट्ठी- poetpawan50@gmail.com
ई चिट्ठा- http://pawanchvannikamela.blogspot.in




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें