गर्मी का महीना था .तेज धूप थी.हवा [गर्म लू के थपेड़े] तेजी से हर-हराती सी आवाज़ करती हुई चल रही थी
.मैं भरी दोपहर में एक हाथ में डंडा लिए खिड़की के रास्ते बाहर कूदा और बाग़ की दिशा
में चल पड़ा.बाग़ में पहुँच कर देखा तो मेरे साथी पहले से ही टिकोरे [कच्चे आम ]
तोड़ने की कोशिश में लगे थे.एक साथ कई झटहे [ डंडे ] लड़कों के हाथों से छूटते और
आम के पेड़ के अनेक अंगों पर चोट करते और फिर नीचे आ गिरते. उनके साथ कुछ टिकोरे,
कुछ पत्तियां कभी – कभी नई कोमल छोटी टहनियाँ भी घायल हो पेड़ से बिछड़कर न चाहते
हुए भी धरती से आ मिलती.पर लड़के उनके दुःख से बेपरवाह और उत्साह के साथ टिकोरे
तोड़ने में व्यस्त थे.कई बार आम की टहनियों को तोड़ कर उसी से टिकोरे या आम तोड़े
जाते.आम की टहनियां विभीषण का काम करती, पर वे मजबूर थीं.
दोस्तों का उत्साह देखकर मैं भी टिकोरे तोड़ने के कार्य में संलग्न हो गया.
थोड़ी ही देर में सामूहिक प्रयास का उत्तम परिणाम सामने था.टिकोरे का ढेर लग गया
था.पर्याप्त मात्र में हमारे पास टिकोरा हो गया था.इतनी मेहनत पक्के आम तोड़ने के
लिए नहीं करनी पड़ती.क्योंकि कच्चे आम कई बार झटहे लगने पर भी नहीं टूटते,पर पके
आम से जरा भी झटहे का मिलाप या स्पर्श हो जाय तो बुद से पेड़ का साथ त्याग कर घरती
से आ मिलते हैं.कई बार इस उत्साह में पके आम बेचारे घायल भी हो जाते हैं.कईयों
के पेट भी फट जाते हैं और अन्दर का पीला गूदा बाहर आकर झांकने लगता है और कभी –
कभी ज्यादा उम्र [ज्यादा पकने के कारण] होने के कारण घरती पर गिरते वक्त खुद को
संभाल नहीं पाते, तो अंतड़ियाँ भी बाहर आ जाती हैं.पर लड़के पोंछ कर उन्हें भी बड़े
चाव से हजम कर जाते हैं.हम चार दोस्त थे,जल्दी – जल्दी आम सुतुही से [ धोंघे से बनी छिलनी ] छीला.उसमें पिसा हुआ नमक,मिर्च और लहसुन मिलाये और छिकुला तैयार हो गया.चारो दोस्त छक कर खाए.मिर्ची की
मात्रा ज्यादा हो जाने के कारण सबकी आखों से गंगा – जमुना बहने लगी थी.सब सी-सी
कर रहे थे,पर उस सी-सी में भी एक मजा था.उसके बाद सब एक साथ सीसियाते हुए, डबडबाई
और छलकती आखों के साथ किशुन चाचा के नल पर झुककर अन्जुली लगाकर भरपूर पानी पिए.
तीखे के चक्कर में इतना पानी पी लिए कि पेट में पानी के हिलोरे मारने का एहसास
हमें हो रहा था.हम पानी पीकर खुस थे.तीखा छिकुला खाने के बाद पानी पीने का जो मज़ा
आया उसका बखान करना मुश्किल हैं.हम वापस बाग़ की तरफ बढ़े कि तभी वहाँ रिंकू और डबलू
भी आ गये. उन्होंने हमें लखनी खेलने का प्रस्ताव दिया. [ पेड़ की इस डाल से उस डाल
पर छोने का खेल ] मुझे छोड़ सब तैयार हो गये.क्योंकि मेरे पेट में पानी का इतना
वजन बढ़ गया था कि मेरा दौड़ पाना मुश्किल था और मैं बार – बार पकड़ा जाता. खेल शुरू
हुआ और मैं बिना नियुक्ति के ही धूल भरी धरती पर बैठकर पञ्च की भूमिका निभाने लगा.थोड़ी
ही देर में मैं पञ्च स्वीकृत भी हो गया. जब डबलू ने मुझसे कहा – पंकज तुम बताओ मैं
डंडा छूकर पेड़ पर चढ़ा था कि नहीं ? मैंने तुरन्त डबलू के पक्ष में फैसला सुनाया और
बिना किसी विवाद के मेरा फैसला मान लिया गया. कुछ देर खेल चलने के बाद मेरा भी मन खेलने को मचला. मैंने दोस्तों को आवाज़ दी. सबने एक स्वर में कहा- ये भी कोई
पूछने की बात है.फिर क्या...? पूरी ताक़त के साथ पतले वाले आम के पेड़ की तरफ दौड़
लगा दी. ताकि महेश के डंडा लेकर लौटने से पहले मैं पेड़ की किसी सुरक्षित टहनी पर
विराजमान हो जाऊं. पेड़ का तना पतला होने के कारण मेरी बाजुओं में समा गया.
फलस्वरूप मैं अपने लक्ष्य में कामयाब रहा. लखनी के खेल में बड़ा मजा आ रहा था कि
अचानक कान में बां – बां की आवाज़ आयी. इसके साथ ही मुझे याद आया कि मुझे गाय चराने
जाना है.तेजी से पेड़ से सरसराते हुए उतरा.इस चक्कर में हल्का सा सीना छिल गया.नीचे उतरने पर जब चारो तरफ आँख घुमाई,तो एहसास हुआ कि सूर्य नारायण का तेज कम हो
गया है.शाम की ओर समय बढ़ रहा है.घर की
तरफ कदम बढ़ाते हुए मैंने जोर से चिल्लाने की आवाज़ में दोस्तों से कहा - मैं घर जा
रहा हूँ. मुझे गाय छोड़नी है.देर हो गयी है.घर की दिशा में दौड़ना शुरू किया.इसके
साथ ही मन में विचार भी दौड़ रहा था कि, सबके जानवर चरने के लिए छूट गये होंगे.सिर्फ मेरी गाय अभी तक खूंटे से बंधी होगी और खूंटे के चारो ओर खूंटा तुड़ाने के
चक्कर में चक्कर काटते हुए बां- बां कर रही होगी.इन विचारों के साथ मैंने दौड़ना
शुरू कर दिया.अब मैं बाग़ पार कर गाँव के सिवान पर आ गया था. मैंने अपनी रफ्तार कम
कर दी या यूँ कहिये कि रुक सा गया मुझें हाँफा आ रहा था. मेरी रफ़्तार तो थम गयी
थी, पर सांसों की रफ्तार मेलगाड़ी हो गयी थी. मैंने एक मिनट के करीब दम लिया और फिर
मेरे घर की ओर जाने वाली गली की तरफ मुड़ा. गली में प्रवेश करते ही मेरी नज़र गली के
अंतिम छोर पर पड़ी. मेरी आखों ने देखा कि आख़िरी छोर के थोड़ा आगे मेरी चाची चिल्ला
रही थी. मेरे कदम चाची की तरफ लपके. अब जब मेरी आखों ने पूरा दृश्य देखा तो, मुझे
अन्दर तक हिला दिया. भैंस क्रूरता के साथ मेरी चाची पर अपनी सींगों से प्रहार कर
रही थी और चाची हमारी मातृभाषा अवधी में क्रंदन कर रही थी ... अरे केहू बचावा...
मरकहिया भैंसिया मार नावति है.अरे बपई हो बपई... कोई दूर – दूर तक मेरी आखों को
नज़र नहीं आ रहा था.मेरे तो होश उड़ गये.पैर से सिर तक डर ने हिला दिया.पैर कांपने
लगे थे.मैं चकर – मकर देखने लगा, क्या करूँ, के भाव के साथ ? तभी इस चकर-मकर के
प्रयास में मेरी आँख सामने पड़े बांस से जा टकराई. दिमाग में बिजली कौंधी और दिमाग में बड़ा वाला बल्ब जल पड़ा. मैं बांस की तरफ भागा.तब तक भैंस चाची को एक बार और झटक
चुकी थी.भैंस के झटकने से चाची पास की खाट पर जा गिरी.इससे पहले कि भैंस अगला
प्रहार करे.मैंने हिम्मत बटोर कर,आगे बढ़कर भैंस के जबड़े पर जी–जान से प्रहार
किया.भैंस तिलमिला गई.अब उसने लक्ष्य बदल दिया.अब उसका रुख मेरी तरफ था.ऐसे
में मेरे पास ‘जान हथेली पर’ के साथ मुक़ाबला करने के सिवा कोई विकल्प नहीं था.मर
जाओ या मार दो के निश्चय के साथ मैं भैंस के नथुने और जबड़े व आस–पास बांस
बरसाने लगा. भैंस मार खाते हुए भी आत्मरक्षा में सिर झुकाए मेरी ओर पल-पल बढ़ रही थी. अब वः मेरे बेहद करीब थी.ऐसे में मैंने पूरी शक्ति के साथ आख़िरी प्रहार किया और मैंने अपनी आखें बंद कर ली.इसके साथ ही बांस
मेरे हाथ से छूटकर खर्र की आवाज़ के साथ दूर जा गिरा.मैंने जब आँख खोली तो पीठ के
बल धरती पर धराशायी था और भैंस आखों से ओझल थी.शायद भैंस मेरी दी हुई आख़िरी चोट से
बौखलाकर भाग गयी थी.फिर मेरी आखों ने
अचरज के साथ चकर-मकर किया.मेरे अन्दर उछल रहे सीने को थोड़ा सुकून मिला मैं ज़िंदा
बच गया था.अब मुझे आभास होने लगा था.अब मुझे अपनी जीत न देख पाने का दुःख भी हो
रहा था.काश उसे हारकर भागते समय मेरी आखें मैंने खोली होती.तो कुछ और ही मज़ा
आता.थोड़ी चेतना बढ़ी तो चाची का ध्यान आया.चाची बेचारी खटिया पर पड़ी कराहने के
साथ छोटे मासूम बालक की तरह सुबक भी रही
थी.मैं अपने कपड़ों में लिपटी मिट्टी को झाड़ते हुए उठ खड़ा हुआ और चाची की तरफ पग
बढ़ा दिया.मेरी मासूम आखों ने चाची के फूटे घुटने देखे.उंगली भी घायल हो गयी थी.खून बह रहा था.माथे पर भी उस जगह चोट लगी थी.जो वर्षो से बिंदी के लिए आरक्षित थी.इस समय बिंदी का कुछ पता नहीं था.मेरी चाची उदित होते सूर्य की तरह गोल और
बड़ी बिंदी लगाती थी.उनकी बिंदी आकर्षण का केंद्र थी.एकाध बार मेरे मन में आया था
कि पूछू कि चाची इतनी बड़ी बिंदी क्यों लगाती हो,पर हिम्मत नहीं हुई.
मैंने डरते हुए चाची की बाँह पकड़ी और
खटिया पर सीधे लिटाने का कुछ सफल,कुछ असफल प्रयास किया. इस प्रयास से मालूम हुआ कि
मेरी चाची सचमुच भारी हैं.इसके बाद मैं पड़ोस की दुबाइन चाची के घर दौड़ते हुए गया.
उस समय वो सूप से गेहूं फटक रही थी.मैं हांफते हुए बोला- चाची – चाची जल्दी चलो,रिंकू की अम्मा को मरकहिया भंइस ने मार दिया है.इतना सुनते ही दुबाइन चाची सूप छोड़
सिर पर पल्लू चढ़ाते हुए मेरे साथ चल पडी.खटिया पर कराहते हुए चाची को देख दुबाइन
चाची ने अपना हाथ अपने सिर पर रख लिया अर्थात घोर अनर्थ हुआ.आश्चर्यजनक,एक क्षण
के लिए दुबाइन चाची अवाक हो गयी.फिर पश्चाताप के भाव से सहानुभूति जताते हुए बोली
– हे भगवान् ये सब कैसे हुआ?गीली आखों और कांपते शब्दों ने उदगार किया – ये सब मत
पूछो कैसे हुआ?अच्छा हुआ कि यह बच्चा समय पर देवता बनकर आ गया.वर्ना आज मेरा
अंतिम दिन होता.मैं कब से रिंकू के बाऊजी को बोल रही थी.ये भैंस बेच दो.पर वे
मेरी एक नहीं सुनते.लो अब भोगें.अब खुद ही खाना बनायें.अब देखती हूँ गरम रोटी
कैसे खाते हैं?कहते हैं खाना बनाना कौन सा बड़ा काम है?अब पता चलेगा.जब बाप-पूत
मिलकर चूल्हा फूंकेंगे. इन शब्दों के साथ ही चाची की जुबान लटपटाई और बेहोश हो
गयी.मैं डर कर घर की तरफ भागा.खिड़की खुली थी.सो धीरे से चोर वाली मुद्रा में
अपने ही घर में घुसा.बाऊजी मुझे खोजकर थक चुके थे.इसलिए मुझे खोजने के लिए
उन्होंने रामू को भेजा था.मैं अनाज वाली कोठारी था कि तभी बाऊ जी की आवाज़ सुनाई
पड़ी.वह बोलते हुए अन्दर आ रहे थे – पंकज’वा [ मेरा नाम ] पता नहीं कहाँ घूमने चला
गया.दोपहर से ही गायब है.सोनू सब जगह खोजकर आ गयी.कहीं पता नहीं चला.न जाने कहाँ
चला गया. गाय खूंटे पर चिल्ला रही है.छूटने का समय हो गया.सबके जानवर छूट गये
हैं.गाय रस्सी तुड़ा रही है.अगला वाक्य गरियाते हुए बोले – आने दो हरामखोर को.बहुत
आवार हो गया है.पढ़ना-लिखना एक अक्षर नहीं,और न ही कोई काम करता है.न ही घर पर
रहता है.एक यही गाय चराता था.अब इससे भी छुट्टी कर ली.आँगन में बैठी अम्मा पर नजर
पड़ी तो शिकायती लहजे में बोले – तुम तो बोलती ही नहीं.
बाऊजी की इस गुस्से भरी आवाज़ को सुनकर मैं डर गया और मैं डेहरी [ अनाज रखने
का मिट्टी का बड़ा बर्तन ] के पीछे कोने में छिप गया.बाऊ जी बोलते जा रहे थे- अच्छा
अब मैं बाज़ार जा रहा हूँ. थोड़ा चना दे दो. बेचकर तरकारी लेते आऊंगा.आज एक रुपया
भी जेब में नहीं है, और हाँ, – पंकज आये तो बोल देना, गाय छोड़ दे.अम्मा ने कोई जवाब
नहीं दिया.बाऊ जी फिर बोले – अच्छा एक काम करता हूँ.गाय को खरी डाल देता हूँ.थोड़ी
देर बझी रहेगी.बोलते-बोलते बाऊ जी खरी लेने घर में आये तो उनकी नज़र कोने में बैठे
मुझ पर पड़ी.देखते ही तपाक से बोले –अरे यहाँ क्या कर रहा है? कब से सब तुझे खोज
रहे हैं.एक चक्कर पूरा गाँव सोनू खोज आई.उसके बाद रामू को खोजने के लिए भेजा हूँ
और तूं यहाँ छुपा है.कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं करके आया है.उन्होंने कान पकड़ा. फिर
मैंने धीरे से कहा - नहीं. कान पकड़कर उठाते हुए बोले – गाय चराने नहीं जाना है. अभी
भी मेरा एक कान बाऊजी के हाथों की मजबूत पकड़ में था.वे मुझे कान पकड़कर आँगन, दालान का पर्यटन कराते हुए बरामदे तक लाये.फिर उन्होंने मुझे कुछ ऐसे
सम्मानसूचक शब्द से संबोधित किया, बाहर चल हरामखोर,काम चोर हो गया है,काम चोर कहाँ
गया था? बोल, बोलता क्यों नहीं?दूध तो कटोरा भर कर चाहिए.फिर गाय कौन चरायेगा?,
मैं, आवारों की तरह घूमने से पेट भरेगा.आज से फिर जाएगा ? बोल! परन्तु मैं कुछ न
बोला.सोंचा अगर आज न कह दूंगा, तो भी कल फिर घूमने जाऊँगा.दिल तो मानेगा नहीं.सो
झूठ बोल के क्या फायदा? इसलिए मैं चुप ही रहा.जब मैंने बाऊ जी के अनुरूप उत्तर
नहीं दिया. तो उन्होंने वही किया जो वे अपने अनुरूप उत्तर नहीं पाने पर करते हैं.उन्होंने
फटाफट ३-४ कान के क्षेत्र में बजा दिया.उसी दौरान अम्मा झोले में चना लेकर आ गई. मेरी
इज्जत की बेइज्जती होते देख अम्मा बोली – अब जाने भी दो.आप तो जब देखो बस पीटना
शुरू कर देते हो. अम्मा का इतना कहना था कि बाऊजी जी के क्रोध ने मुझे तत्क्षण बख्स
कर अम्मा की ओर रूख किया.बाऊजी के क्रोध ने मेरी आड़ लेकर अम्मा पर जोरदार हमला किया.
औरत की जात बहुत खराब होती है.बाबू-बाबू करके सिर पर चढ़ा दी हो.कल यही जब आवारा,नकारा
निकल जाएगा.तब नहीं बोलोगी .. आज तो मैं इसको छोड़ देता हूँ.आज के बाद फालतू घूमने
गया तो मार के हाथ पैर तोड़ दूंगा और तुम भी नहीं बचोगी.फिर मेरी तरफ घूरकर देखते
हुए बोले – मैं बाज़ार जा रहा हूँ.गाय छोड़ देना.आने के बाद अगर पता चला कि आज गाय
चरने के लिए नहीं छूटी तो तुम्हारी खैर नहीं.’
इतनी धमकी देकर बाऊजी चने का झोला
अम्मा के हाथ से छीनने के अंदाज़ में लेकर साइकिल की तरफ बढ़े.बाऊजी को साईकिल
आखिरकार बाज़ार लेकर चली गई. अम्मा अन्दर रसोई की ओर बढ़ चली.पीछे – पीछे मैं भी चल
पड़ा.पेट कुछ बोल रहा था,पर मैं ठीक से उसकी भाषा नहीं समझ सका. बाऊ जी के तमाचे
की गर्मी थोड़ी कम होने पर लगा,शायद पेट भूख की बात कह रहा था.इस बीच बाऊजी के
अंतर्ध्यान होने के उपरान्त अम्मा की जुबान खुली – ‘इतना मार खाते हो,फिर भी नहीं
मानते. तुम्हारी वजह से चार बात मुझे सुननी पड़ती है.मार खाते हो तुम और तकलीफ़ मुझे
होती है.’‘तुम्हे तकलीफ़ होती है! मार तो मैं खाता हूँ न. तुमको क्या ?तुम तो
खड़ी होकर देखती रहती हो.’ छोटी उम्र की मासूमियत वाली भाषा छलक पड़ी थी.अम्मा
बोली- तो क्या करूँ?बीच में आकर मैं भी मार खाऊं.पंकज के मासूम मन में मासूम सा
सवाल उठा.जिसे अम्मा की ओर उछाल दिया – ‘अम्मा तुम बाऊ जी से डरती हो.’अम्मा का
दिमाग सवाल सुनकर अचानक लड़खड़ाते – लड़खड़ाते सम्भला.फिर झूठी अकड़ के साथ अम्मा का संक्षिप्त
स्वर फूटा- नहीं तो. फिर पंकज का छोटा संवाद- नहीं तो क्या ? इस छोटे से वाक्य ने
अम्मा के दिमाग को गुस्सा दिला दिया.गुस्से ने अम्मा को झिड़कने का अंदाज दिया.तो क्या?ज्यादा बात मत कर. आज कल तूं बहुत बोलने लगा है.चल खाना खा और गाय छोड़
दे.इतनी देर तक कहाँ गायब था? अचानक मेरे दिमाग में चाची की याद आयी. मेरा दिमाग हिलने
लगा.मैं बोला अम्मा एक बात कहूँ. अम्मा ने आज्ञा वाले अंदाज में कहा – कोई बात
नहीं,चुपचाप खाना खाओ और गाय छोड़ दो. मेरा पेट खाने के मूड में था और दिमाग अम्मा
से चाची वाली बात कहने की जल्दबाजी में था.मेरे हाथ और मुंह ने मिलकर तेजी से दाल
भात और आलू के चोखे को पेट के गोदाम में पहुंचा दिया.अब चाची वाली बात उगलने की
जल्दी थी. सो मैंने उगल दी.अम्मा मैंने आज चाची को मरकहिया भैंस से बचाया. भैंस
चाची को मार रही थी.मैंने उसे बाँस से मार कर भगा दिया.बाद में चाची मर गयी.इसलिए
मैं भाग आया. अम्मा ने भी दुबाइन चाची की तरह सिर पर हाथ रख लिया और वही
बोली जो दुबाइन चाची ने बोला था. हे भगवान् ! तूं सच कह रहा है.मैंने अपनी बात की
सत्यता के लिए बीच में विद्या माँ को घुसा दिया. ''विद्या माई की कसम'' अम्मा सही कह
रहा हूँ.अब फिर अम्मा ने दुबाइन चाची की तरह साड़ी का पल्लू सिर पर चढ़ाया और तेज
कदमों से बाहर की तरफ निकली. अम्मा के पीछे मैं भी हो लिया.
रिंकू के घर पहुँच कर
देखा तो वहाँ भीड़ लगी थी.दो औरतें चाची को बेना [पंखा] झल रही थी.चाची कराह रही
थी. अम्मा भीड़ को चीर कर चाची की खाट के पास पहुँची. अम्मा की उंगली पकड़े मैं भी
पहुँचा.अम्मा चाची से बोली – जीजी, चाची का ध्यान अम्मा पर आया. इससे पहले कि
अम्मा आगे बोलती.अम्मा को देखते ही चाची बोली – अरे पंकज की अम्मा, आज मुझे
तुम्हारे बेटे ने बचा लिया. भगवान् ,देवी माई, संकर भगवान लम्बी उमर दें.इतना
आसिरवाद सुनते ही अम्मा ने मेरा हाथ पकड़कर अपने आगे कर दिया.मुझे देखते ही चाची की
आखें पुनः भर आयी.उन्होंने अपने कांपते हाथ को बड़े स्नेह से मेरे सिर पर फेरने की
कोशिश करते हुए बोली – जुग-जुग जियो बेटवा. भगवान तुम्हें अज्जर-अम्मर [अजर-अमर] रखें.यही दुबाइन बहिनी को भी बुलाकर लाया.उसके बाद मैं बेहोस हो गयी.जब होस आया तो ये
हुजूम देखा. पर पंकज नहीं था. तुम्हार बेटवा जान पर खेल कर हमके बचाया. कौन
आशीरवाद देई.अम्मा बोली- जीजी मुझे जैसे पंकज ने बताया आप को भैंस ने मार दिया.मेरा कलेजा मुंह को
आ गया.तुरंत भागी – भागी आयी.जीजी आप के आराम की जरूरत है. आप आराम
करा.आप जल्दी ठीक हो जायेंगी. भगवान् सब ठीक कर देंगे.बाद में आती हूँ जीजी. इतना
कहकर,अम्मा मेरा हाथ कसके पकड़कर भीड़ से बाहर निकल आयी. रास्ते भर अम्मा कुछ नहीं
बोली घर आकर बरामदे में अम्मा खटिया पर बैठ गयी और मेरा सिर अपने आँचल में रख कर
सहलाने लगी.रह-रह कर अम्मा थपकी भी देती.इस बीच मेरे गाल पर पानी की कुछ गर्म बूँदें
गिरी. तब मैंने अम्मा के चहरे की तरफ देखा. अम्मा की आखों से बरसात हो रही थी.अम्मा
के हाथ मेरे बदन पर फूल की तरह टहल रहे थे.वह हाथ आशीष,स्नेह और ममता की गर्मी से
डूबा था.अम्मा की उस स्नेहिल थपकी से मैं बेहद खुस हो गया और सोंचने लगा ‘न मातु
पर दैवतम’ माँ से बढ़कर परम देवता कोई नहीं है.माँ ही वह ईश्वरीय उपहार है,जिसे
स्वर्ग के खो जाने पर ईश्वर ने मनुष्य को उसके क्षतिपूर्ति के लिए दिया है.अम्मा
मेरे उस काम से खुस थी. मैं अपने आप को मन ही मन शाबाशी दे रहा था.मुझे खुसी थी कि
आज मैंने एक अच्छा काम किया.अब अम्मा के इस स्नेह के बाद मुझे बाऊजी की मार का
कोई मलाल न था.एक घंटा दिन रह गया था.अम्मा ने कहा जाने दो. एक घंटे के लिए गाय
क्या छोड़ोगे?मैंने कहा नहीं अम्मा मैं गाय छोडूंगा.कम से कम गाय एक घंटा तो चरेगी.
अपना गुल्ली-डंडा लेकर गाय के साथ मैदानों की ओर चल दिया. खुशनुमा मूड में
गुनगुनाते हुए.
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