यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

आखिर आरक्षणासुर का वध ....?


 आज मैं  आरक्षण की बात करूँगा पर आंकड़ों और इतिहास की बात नहीं करूँगा.कुछ और बात करूँगा बतौर आम भारतीय. आरक्षण एक बेहद ख़तरनाक राष्ट्रनाशक हथियार बन चुका है . भारत के लिए हाईड्रोजन बम से भी खतरनाक शक्ल अख्तियार कर चुका है. अभी आरक्षण के छोटे - छोटे बम फूट रहे हैं,पर क्या कभी किसी भारतीय ने ध्यान दिया कि इन आरक्षणवादी आंदोलनों से देश का कितना  आर्थिक,  सामाजिक और जीवन की हानि हुई है. आतंकवादी हमलों से कई हजार गुना हानि इन आरक्षण के आंदोलनों से हुई है, खासकर भारतीय रेल जो ऐसे आंदोलनों में इस मुहावरे की तरह हो जाती है  '' गरीब की बीवी गाँव भर की भौजाई''.
 खैर क्या कभी इस पर कोई राष्ट्रव्यापी चर्चा हुई.नेताओं या मीडिया नामक सामाजिक विश्लेष्ण के ठेकेदारों  ने इस पर कोई सर्वे किये. कि इन आंदोलनों में विगत 10 या 15 वर्षों में कितने लोगों ने जान गंवाई. कितने लोगों नें इन आंदोलनों के कारण अपनी छत गंवाई, कितने लोग अपंग या घायल हुए, कितने लोगों का जीवन और व्यापर नष्ट हो गया और उनकी आने वाली पूरी एक पीढ़ी आर्थिक रूप से बर्बाद हो गई. जिनका घर, दुकान, शोरूम, गाड़ी बर्बाद हुई. उसका पूरा हर्जाना  उन्हें कभी मिला. अगर नहीं तो क्यों ? इन आरक्षण आंदोलनों में जिनके घर ,दुकान, संसाधन यहाँ तक कि संतानें भी जल जाती हैं. उन्हें इन्साफ कौन देगा. उसका अपराध किस पर तय होगा. इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा .आप आरक्षण के लिए  सामान्य आदमी का घर जला देंगे .आरक्षण महोदय आप  किसी आम आदमी का कर्ज लेकर लिया गया सेकेण्ड हैण्ड ट्रक जला देंगे. किसी की उधारी और मित्रों की जुगाड़ से 15 दिन पहले खोली गई दुकान  जला कर चले जायेंगे. पर क्या आरक्षण के प्यासे दैत्य आप ने सोचा ?  आप ने अपने आवेश को शांत करने के मद में मात्र एक दुकान नहीं जलाई. पूरा एक परिवार ,उसकी आशा और प्रगति की समस्त आकांक्षाओं को जला दिया. क्या इस पर कभी परिचर्चा या सेमीनार होगा. क्या ये देश में जातिगत द्वेश नहीं बढ़ा रही है. एक तरफ जातिभेद मिटाने की बात दूसरी तरफ जाति के आधार पर ही आरक्षण ये दोगलापन [कड़े शब्द के लिए क्षमाप्रार्थी] आखिर क्यों ? इसी का उत्तर चाहिए . इसी प्रश्न में संकट,स्वार्थ और समाधान छुपा हुआ है.
''खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग बदलता है '' वर्तमान आरक्षण की मांगों का यही हाल है. यदि यही हाल रहा तो हर वर्ष कुछ नई जातियां आरक्षण की मांग लेकर खड़ी हो जायेंगी.और फिर सरकारी और गैरसरकारी सम्पत्तियों को फूंका जाएगा.आरक्षण का दैत्य  इस तरह हर महीने, हर साल कुछ लोगों की बलि लेगा और इसका आंकड़ा बढ़ता ही रहेगा .
महाभारत में एक  कथा है...
कचक्रा नामक नगरी में एक बकासुर नामक राक्षस रहता था. जिसे हर महीने उस नगरी से एक मनुष्य की बलि चाहिए होती थी  और मजबूर होकर गाँव वालों को बलि देनी पड़ती थी. आखिरकार उस नगर के लोगों की समस्या का समाधान भीम ने किया. वे स्वयं एक दिन बकासुर का भोजन बनकर उसके समक्ष गये और एक योद्धा की तरह युद्ध कर उसका वध किया.इस तरह बकासुर का स्थाई समाधान हुआ. ये घटना द्वापर की थी .अब कलयुग है.और इस कलयुग  में बकासुर आर्क्षणासुर के रूप में फिर पैदा हुआ है वो भी वंचित, पिछड़ों का चोला ओढ़कर जो सिर्फ आम लोगों की जान ही नहीं ले रहा है  बल्की भारत में नफरत, घृणा, आर्थिक और सामाजिक नुकसान भी बड़े पैमाने पर कर रहा है. अब समय आ गया है इस आरक्षणासुर का वध हो . क्या किसी योद्धा [ नेता ] में हिम्मत है जो भारत रूपी नगर को इस आरक्षणासुर से मुक्ति दिला सके. यदि नहीं तो  इस नगर का दृश्य आने वाले दिनों में इतना भयानक होगा .जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल होगा . फिर एक दिन उनका  नम्बर भी आएगा जो सोंच रहे हैं हमारा घर तो नगर के आख़िरी हिस्से में है हमारा नम्बर ही नहीं आएगा या जब आएगा तब देखा जायेगा. पर उनका नम्बर भी आएगा और वे बच नहीं पाएंगे. क्योंकि आर्क्षणासुर की भूख कभी खत्म नहीं होगी.

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