वसंत ऋतु का आगमन हो
चुका था. परीक्षा भी नजदीक थी. परीक्षा चूँकि
बोर्ड की थी, वह भी
पहली बार इसलिए सब लोग चिंतित थे. बोर्ड परीक्षा
सबके लिए एक हव्वा थी.लोग खूब
मेहनत से पढ़ाई कर रहे थे. परंतु 2-4
विद्यार्थीगण ऐसे भी
थे ,जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था. चाहे कोई भी
परीक्षा हो. वह हमेशा अपनी धुन
में रमे रहते थे. ऐसे सदाबहार लोगों में
एक नाम मेरा भी शामिल था मौसम भी सदाबहार
था. वसंत ऋतु अपनी
जवानी पर थी. पेड़ों पर नए पत्ते निकल रहे थे. फूलों के खिलने
के
मौसम थे, तो फूल भी खिल कर महक रहे थे. तमाम तरह की रंग बिरंगी
चिड़िया पेड़ों
पर इधर से उधर फुदक रही थी. कुछ अप्रवासी पक्षी भी बसंत
के मौसम में, बसंत का आनंद
लेने हमारे प्रिय देश में आये हुए थे और
ऐसे खूबसूरत मौसम में मेरे एक बदसूरत
दिमाग वाले सहपाठी, जिनका
नाम राकेश कुमार था.एक दिन गुलेल लेकर स्कूल आये. इससे
पहले वे
कई बार दोस्तों, सहपाठियों को अपनी गुलेलबाज़ी की कहानियां सुना चुके
थे.
जब दोपहर को भोजन अवकाश हुआ तो राकेश अपने
गुलेलबाज़ी की
कला के प्रदर्शन के लिए कुछ सहपाठियों और चमचों के साथ पास की
बाग़ की
तरफ चल पड़े. मैंने उन्ही दिनों वीसीआर पर किसी फिल्म में गुंडे
पर हीरो द्वारा
गुलेल से मारने का रोचक दृश्य देखा था. जो अभी भी मेरे
दिमाग पर हावी था.राकेश के
हाथ में वास्तव का गुलेल देखकर उसे छूकर
देखने की इच्छा हुई. मैंने मन ही मन सोंचा
यदि राकेश ने गुलेल चलाने
का प्रस्ताव दिया तो फिर तो मेरा रूतबा ही अलग होगा.यदि
बिना मांगे
नही देता है और मांगने पर भी दे देता है तो भी कोई बुराई नहीं. एक ही
कक्षा में एक साथ पढ़ते हैं.मांगने पर तो दे ही देगा. मैं ये सब सोंच ही
रहा था कि
किसी ने कंधे पर पीछे से हाथ रखा- पीछे मुड़कर देखा तो मेरे
सहपाठी और पड़ोसी शेषमणि
थे. शेषमणि बोले खाना खाने घर नहीं
चलोगे. मैंने कहा नहीं, आज भूख नहीं है.तुम
जाओ. शेषमणि ने सहमति
में सर हिलाया और आगे बढ़ गये. मेरा ध्यान राकेश पर आया.तो
अपने
स्थान से ही इधर-उधर चकर-मकर निगाह फेरी.तो राकेश और मंडली बाग़
में प्रवेश
करते हुए दिखाई दिए.फिर क्या मैं राकेश की तरफ दौड़ पड़ा. जो
राकेश अक्सर मेरे पीछे
पड़ा रहता था गणित के सवाल हल करवाने के
चक्कर में आज मैं उसके पीछे गुलेल के चक्कर
में पड़ गया था. हाँफते-
हाँफते राकेश के पास पहुँच कर रुका.किसी ने कोई प्रतिक्रया
नहीं दी. हाँ
राकेश ने मुड़कर देखा और एक फीकी मुस्कान दी.मुझे थोड़ी असहजता
महसूस
हुई.पर राकेश के हाथ में झूल रहे गुलेल को देखकर अगले ही
पल सहज हो गया. हम दो –चार
कदम आगे बढे ही थे कि कोयल के
कूकने की आवाज़ आई. एक साथ कई सहपाठियों के स्वर
उत्साह एवं
आश्चर्य के भाव के साथ गूंजे,’’अरे कोयल बोली’’
सबकी गर्दन आसमान
की तरफ उठ गयी.सबकी नजरें पेड़ों के पत्तों तथा टहनियों में कोयल
को
खोजने लगीं. तभी पुनः कोयल कूकी. सबने अपने–अपने
अनुसार अनुमान
लगाया. इधर से आवाज़ आयी.कोई बोला इधर से नहीं उधर से आवाज़
आयी.एक ने
कहा छोडो न यार. राकेश भाई आम ही तोड़ दो न. मैंने भी
सुर में सुर मिलाया. हाँ यार
आम पर ही निशाना लगाओ. राकेश ने गुलेल
से कई आम तोड़े पर कई बार निशाना खाली भी
गया. मैं देख रहा था
गोलियां तेजी से खत्म रही है.मैं सोंच ही रहा था कि राकेश से
कहूँ कि
एक बार मुझे भी निशाना लगाने के लिए दे कि तभी किसी की नजर
महुए की डाल पर
बैठी पेंडुक पर पर पड़ी.उसने कहा- अरे राकेश भाई, उस
पेंडुक पर निशाना लगाओ. एक साथ
कई ने हाँ-हाँ कहा.राकेश को भी बात
जम गई.फिर क्या राकेश ने गुलेल में गोटी फिट की,
एक आँख मूंदकर
रबर खींचा और अगले क्षण पेंडुक तड़पता हुआ, पंख फडफडाते हुए पत्तियों
और टहनियों से टकराते हुए जमीन पर आ गिरा.दोस्तों ने एक साथ ताली
बजाई. सबके चेहरे
खिल उठे. पीछे से मैंने भी ताली बजाई.पर जब पास
जाकर देखा कि उसके पंख के नीचे से खून
बह रहा है तो मेरे होश उड़
गये.मेरी खुसी काफूर हो गई. कईयों ने राकेश को बधाई दी.
उत्साह वर्धन
किया. वाह राकेश, भाई मान गये .तुम्हारा निशाना कमाल का है. इस बीच
एक सहपाठी ने लपककर यह कहते हुए पेंडुक को झोले में डाल लिया कि
इसका गोश्त तो
कबूतर से भी अच्छा होता है.मेरे चाचा बहुत अच्छा बनाते
हैं राकेश भाई. आज रात का
तुम्हारा खाना मेरे घर पर.इतना कहकर वह
छोले के साथ नौ – दस – ग्यारह हो गया. मेरा
गला सूखने लगा. मैंने बुझे
स्वर में हिम्मत कर कहा राकेश यार एक बार गुलेल मुझे दो.मैं
भी
निशाना लगाना चाहता हूँ. पर राकेश की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई
मेरा ह्रदय
ग्लानि और अपमान से भर गया पर गुलेल चलाने के चक्कर में
बेहया बनकर पुनः जोर की
बनावटी आवाज़ में बोला- यार राकेश एक बार
मुझे भी जरा आजमाने दो. इस बार राकेश ने
मेरी आवाज़ सुन ली और
धीरे से गुलेल पकड़ा दिया.पहले तो ध्यान से मैंने गुलेल को देखा.
एकाध
बार रबर को खींचा. इस बीच ने सहपाठी ने मुझ पर तंज कसा लगता है
पहली बार
गुलेल देख रहे हैं. मैंने तुरंत जवाब दिया. देखने को तो बहुत
बार देखा हूँ.अभी पिछले
हप्ते ही विनोद खन्ना की पिक्चर में ही गुलेल
चलते देखा हूँ. हाँ हाथ में आज लिया
हूँ .सब हंस पड़े . पर मैं चुप रहा
मुझे तो गुलेल चलना था सो मैंने राकेश से गोंटी
मांगी और एक आम पर
निशाना लगाया, पर
निशाना बुरी तरह चूक गया. गोटी पहली बार ठीक
से बैठी ही नहीं थी और फिर पहली बार तो
हाथ में गुलेल पकड़ा था.फिर
सब हंस दिए. तुम क्या गुलेल चलाओगे. गुलेल चलाना कोई पूड़ी-तरकारी
खाने का काम है क्या ? ब्राम्हण होने के कारण ये मेरी जाती से जोडकर
की गई टिप्पणी
थी.मैंने उस व्यंग का जवाब न देते हुए पुनः मैंने कहा-
राजेश जरा फिर से अपना
गुलेल देना. जरा
इन को दिखा दूँ. एक दो बार तो किसी से भी निशाना चूक जाता है. तभी राकेश बोला- बस
रहने भी दो गुरु. वह सही बोला पूड़ी खाने का काम नहीं हैऔर यदि इतना ही गुलेल
चलाने का शौक़ है तो एक गुलेल खरीद लो. मांग कर निशाना नहीं नहीं
लगाते.यह बात मुझे
चुभ गई अन्दर तक. मैं चुपचाप वहां से सीधे
चलता
बना. शाम को विद्यालय छूटा तो वहां से सीधे नाक की सीध में घर की
तरफ दौड़ा. घर
आकर बरामदे में बस्ता फेंका और वहीं से पोखरे के लिए
रवाना हो गया.वहां से चिकनी गीली
मिट्टी लाया और छोटी-छोटी 200
बोरियां बनाकर छत पर
सूखने के लिए रख दिया. उसके बाद हाथ-पैर धो
कर खाना खाने गया. अम्मा बोली आज इतनी
देर, अब तक कहां थे?
मैंने कहा पोखर पर मिट्टी लाने गया था. अम्मा बोली-क्यों? तो
मैंने कहा-गोली बनाने के लिए. क्योंकि मुझे गुलेल चलाना है. अम्मा- तो अब गुलेल
चलाने का शौक चढ़ा है. क्या करोगे गुलेल से ? मैंने कहा चिड़ियों पर
निशाना साधुंगा
और तुम्हारे लिए दाल में डालने के लिए कच्चे आम
गुलेल से तोड़ूंगा.अम्मा
बोली-
तुम्हारे बाबूजी को पता चला कि तुम गुलेल
से चिड़िया मारने वाले हो,तो तुम्हारे हाथ--पैर तोड़ देंगे. इसलिए
बता देती हूँ बाकी तुम्हारी मर्जी.परंतु मैं कहां मानने वाला था.
दूसरे दिन अपने एक
सहपाठी विनोद विश्वकर्मा को पटाया.उसके पिता बढ़ई का काम करते थे.वह पढ़ने में कमजोर था.
पर कारीगरी उसे आती थी. मैंने उस
के कुछ
गणित के सवाल हल किये.थोड़ा विज्ञान में भी मदत की. बदले में एक बना बनाया बढ़िया चमौधी का
गुलेल प्राप्त किया. वापस शाम को घर पहुँचा तो बस्ता बरामदे में खूंटी पर टांगकर सीधा सीढ़ियों के रास्ते छत पर पहुँचा. गोलियां लगभग सूख गई थी. जिनका नीचे का हिस्सा नम था उन्हें पलट दिया. अब बस मुझे कल का की सुबह का इंतज़ार था. आखिरकार वो सुबह आ गई.जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी .खाना खाकर सीधा छत पर गया .गोलियां बटोर कर छोटे वाले च्यवनप्राश के डिब्बे में जितनी आ सकती थी हिला-दुला कर भर ली.उसके बाद कपडा पहन, बस्ता उठा .मुंशी जी जे कविता याद करने को कहा था. सो सब जोर -जोर से रट्टा मार रहे थेएक साथ. कविता थी ''चेतक की वीरता''
रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था।।
गिरता न कभी चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था.
मुझे भी यह कविता बेहद पसंद थी क्योंकि कभी कभी मेरे बाबू जी भी यह कविता गाते और बताते कि इस कविता के लेखक श्यामनारायण पाण्डेय से मिल चुके हैं.पड़ोसी जिले आज़मगढ़ के हैं.हाँ तो मैं कह रहा था सब लोग कविता जोर-जोर से रट रहे थे. पर मैं बार-बार बस्ते में हाथ डालकर गुलेल थोड़ा बाहर निकालता फिर अन्दर कर देता. अनमने मन से मैं भी कविता पढ़ रहा था. पर मेरा ध्यान ज्यादातर दोपहर के अवकाश की घोषणा करने वाले यंत्र, पीतल के उस घंटे पर था.जिसके बजने पर टाट के पट्टे पर बैठे बच्चे तेजी से उठकर खुसी के साथ शोर मचाते हुए बेतरतीब होकर मनचाही दिशा में भागने लगते.मैं सोंच ही रहा था कि घंटी कब बजेगी कि तभी चपरासी ने घंटा बजाना शुरू किया. मैं भी अपने दो-तीन सहपाठियों के साथ बाग़ में दाखिल हुआ. मैं
भी कच्चे आमों पर शुरुआत
में करीब 50 गोलियां
बेकार गई,
परंतु बाद में निशाना लगने लगा.अब मेरा मन पढ़ने से अधिक गुलेल चलाने में रहता .10 दिन बीतते बीतते मैं स्कूल
में मशहूर निशानेबाज के रूप में चर्चित हो गया और राकेश अब गुलेल के मामले में भी पीछे
हो गया.
चूँकि पढ़ने
में मैं अव्वल था ही.
अंताक्षरी,गीत,भाषण में भी
आगे था. बचा था गुलेल, अब उस
पर भी मेरा वर्चस्व स्थापित हो गया था. मुझे तो बस राकेश को दिखाना था पर अब मैं उस स्पर्धा से काफी आगे निकल आया था .अब
मेरे निशाने और मेरी परिपूर्ण गुलेल बाजी की कला
की भनक मेरे घर वालों को भी लग चुकी थी.घर पर मुझसे और दीदी
में अक्सर किसी न किसी विषय पर घमासान मची रहती थी.
एक दिन सुबह का वक्त था. दीदी नल पर बर्तन मांज
रही थीं. मैं सूखी गोलियाँ गिन रहा था.दीदी बोली- रोज गोलियां ही बनाते और गिनते हो
कि कभी निशाना भी लगता है.माजरा क्या है ? खुद को बहुत तीसमार खां समझते हो.
मैंने कहा- तुम को क्या पता ?बर्तन मांजो बस. दीदी बोली- मैं
तो माज ही रही
हूं.
सामने पेड़ पर बैठी भुजैटा [एक प्रजाति की काली चिड़िया] मार दो तो जानू. बस फिर क्या था ? निशाना लगाया,एक आँख मूंदी गुलेल का रबर खींचा और
कुछ क्षणों बाद
गोली छोड़ दी.गुलेल ढीला हुआ कि भुजैटा चिड़िया सामने
जमीन पर गिर पर छटपटाने लगी.संयोग वश तभी किसी काम से बाबूजी मडई [छप्पर] से बाहर निकले.उनकी नज़र सीधे छटपटाती हुई चिड़िया पर गई .वे तेजी से मेरी दिशह में लपके. अपनी तरफ आते देख मैं घर के अंदर भाग गया.पिताजी छटपटाती चिड़िया को हाथ में लेकर सहलाने लगे.दीदी को तुरंत अन्दर से सरसों का तेल गर्म करके लाने को बोले. दीदी डर के मारे बर्तन माजना छोड़कर सीधा घर में गई और गर्म तेल लेकर ही लौटी.बाबूजी चिड़िया की गर्म तेल से मालिश
किए,
फिर पानी पिलाए, और काफी देर तक उसे हाथ में लेकर सहलाते भी रहे .फिर धीरे से उसे जमीन पर रखकर थोड़ी दूरी पर जाकर बैठ गये,किन्तु घ्यान चिड़िया पर ही था . करीब
1 घंटे बाद चिड़िया स्वस्थ
होकर,
फिर से उड़ कर, सामने बिजली के खंभे पर जाकर बैठ
गई.तब तक दीदी बाबू जी को मेरी सारी करतूत बता चुकी थी. और
फिर बाबूजी सीधा घर में आये और मेरा कान पकड़ कर खींचते हुए द्वार पर लाये उसके बाद मेरी पिटाई शुरू कियेतो मै चिल्लाने लगा .मेरी आवाज़ अम्मा के कानों में पड़ी. अम्मा गेहूं साफ़ करना छोडकरबाहर आ गई. मुझे पिटते देख अम्मा से रहा न गया.मुझे बाबू जी के पथरीले हाथों से बचाया तो किन्तु मेरी गुलेल न बाख सकी.बाबू जी ने गुलेल तोड़कर तालाब में फेंक दी.उसके बाद कान पकड़कर उठक-बैठक करवाया और मुझसे प्रतिज्ञा करवायये कि जीवन में फिर कभी किसी पक्षी अथवा
प्राणी की हत्या नहीं करुंगा. न किसी तरह की हानि पहुँचाऊँगा. मैंने विद्या माई कसम खाई तब
जाकर उन्होंने मुझे छोड़ा. शाम को जब पूजा करने पिताजी बैठे तो मुझे
बुलवाए और आधा घंटा रामचरितमानस का पाठ
करने के बाद उन्होंने काफी देर तक मुझे समझाया. किसी की हत्या करना
पाप है. उनमें भी हमारी तरह जीव है. किसी को मारना अथवा
बंधक बनाना उनकी स्वतंत्रता पर आघात करना महापाप है. हमें ऐसा
नहीं करना चाहिए. भविष्य में बेटा कभी ऐसा मत करना है तब से आज
तक मैंने कभी इस प्रकार का कोई काम नहीं किया. इति शुभम
poetpawan50@gmail.com
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