दर्द अंदर है अधर पे है
हँसी
ज़िन्दगी इस तरह अधर में
फँसी
दर्द को मैं उछालना चाहूँ
किंतु अंदर के भी अन्दर है
धँसी
प्रेम में खुद को बाँधना
चाहा
प्रेम पथ पर ही नाधना चाहा
फिर भी दुःख हाय छोड़ता ही
नहीं
अनेक यत्न साधना चाहा
हँसते चेहरे पे उदासी छायी
ये कला ठीक से नहीं आयी
लोग कैसे बदल
रहे चहरे
ये कला हमने क्यों नहीं
पायी
रोज गिरते हैं रोज उठाते हैं
बिन अपराध के भी पिटते हैं
कैसे - कैसे अजूबे होते हैं
घर के ही लोग मुझसे चिढ़ते
हैं
पवन तिवारी
२६/०४/२०२३