शीत की रात में ज़िन्दगी यूँ
ढले
माता की गोद में जैसे बालक
पले
छोटी-छोटी चुहल भी करे असहज
इक रजाई हटाने से भी
है खले
ऐसे मौसम में तन कुछ
सिकुड़ता भी है
एक मन है कि ज्यादा मचलता
भी है
फसलों में भी ख़ुशी का यही
है समय
वृद्धों का स्वास्थ्य
ज्यादा बिगड़ता भी है
ऐसे मौसम में ही चाय चाहत बने
जो अभावों में हैं उनको आफ़त
बने
देता सुख भी है ये देता दुःख
भी है ये
प्रेमी मन के लिए जैसे दावत बने
पवन तिवारी
२८/११/२०२२
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