विपदा
ऐसी कभी न देखी
जाने
क्या विधना की लेखी
वे
भी बिलख रहे अनाथ सा
कल
तक बघारते जो शेखी
चारो
ओर रुग्ण पसरे
हैं
हम
जाने किसके असरे हैं
त्राहि-त्राहि
की ध्वनि उन्मत्त है
उजड़े
हुए सभी बसरे
हैं
जिनको
गर्व था अर्थ पे अपने
बिखर
गये उनके भी सपने
भटके
थे गलियों गलियों वे
थोड़े
में
वे लगे थे हंफने
सत्तायें
भी हिली हुई थीं
त्रासदियाँ
सब मिली हुई थीं
बड़बोलों
की जिह्वाएँ भी
शांत
थी जैसे सिली हुई थीं
प्रकृति
भी ऐसे कुपित हुई थी
महामारी
सी फलित हुई थी
भय भूमंडल भर में फैला
गिद्धों
की माँ मुदित हुई थी
प्राण
वायु को सताया सबने
जल
को बहुत रुलाया सबने
स्वारथ
के आगे हो अंधे
मिलकर
पेड़ कटाया सबने
अब
से चेते तो भी अच्छा
लगाओ
पर्यावरण की कक्षा
प्रकृति
का सम्मान किये तो
आने
वाला बचेगा बच्चा
पवन
तिवारी
०६/०५/२०२१
( कोरोना काल में रचित )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें