पीड़ा की गति ऐसे बढ़ गयी
ज्वर
की आभा बदन में बढ़ गयी
पीड़ा
ठहर के तन गयी हिय में
अधर
में कई दरार बढ़ गयी
ऐसी
पीड़ा को सह जाना
मौन
में चुप रहकर कह जाना
सिद्धि
पाना यूँ पीड़ा पर
अंदर
– अंदर ही दह जाना
दुष्कर
है यूँ मारकर जीना
घूँट
- घूँट में गरल को पीना
इच्छा
हो पर कह ना पाना
अपने
दुःख को अपने सीना
रोम
- रोम से आह निकलती
फिर
भी जीवन से हँस मिलती
ऐसे
त्रास सहन करके भी
जीवन
के संग पग पग चलती
सपनों
को आकाश में रखता
दिन
में सोता रात में जगता
काँख
में पीड़ा को रख करके
सपनों
से बातें कर हँसता
ऐसे
जीकर वो आया है
तब
अपनी आभा पाया है
गया
है रोने के दिन में
तब
उसको अब जग गाया है
पवन
तिवारी
२७/०३/२०२१
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