मेरे प्राण ने मेरे प्राण पर ऐसा अस्त्र चलाया
अस्त्र दिया था परम
मित्र ने सुनकर धैर्य गंवाया
दोनों मिल यूँ रूप दिखाये तन की साधना का
प्राण हुए भय से उड़ने को उर कम्पित घबराया
हिय से निकल प्रेम
तब भागा फिसला बिखर गया
जिससे प्रेम वही हत्यारा देखा अखर
गया
मूर्छित होकर गिरा धरा पर प्राण
फँसा ग्रीवा पर
कातर नयनों से नीर ढले
यूँ जैसे था खर गया
कोई अभिलाषा, अपेक्षा जैसा कोई
दुराव न था
रिश्ते में कोई दाग पुराना,पहले
का कोई घाव न था
हाँ, निष्ठा का एक
भाव गहरे तल में चुप बैठा था
उसकी भी यूँ हत्या
होगी आया कभी ये भाव न था
प्रेम में निष्ठा की
हत्या ने मन की हत्या कर डाली
हिय की गोद एक क्षण
में ही नयन नीर से भर डाली
ग्रीवा में हैं
प्राण सिसकते, मुक्ति, मुक्ति की नाद से
पावन भावों को
वासना की चक्की से दर डाली
मृत्यु से संघर्षरत जीवित
बचने की आशा में ... यह रचना
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
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