यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

मिलिए एक जुझारू,संवेदनशील चित्रकार एवं कवियत्री – उर्मिल जैन


आज १५ सितम्बर को गणपति विदाई के आख़िरी दिन अपने वादे के मुताबिक़ भारी बरसात में तेज जुकाम होने के बावजूद उर्मिल जैन से भेंट करने अंधेरी स्थित उनके घर पहुँचा. मैंने अपने आगमन की सूचना देने हेतु द्वार पर लगी घन्टी बजाई. मुस्कराते चहरे के साथ किवाड़ खोलकर मेरा स्वागत किया. करीब १० वर्ष पहले २००६ उनके घर गया था और फिर सीधे २०१६. खैर बातों का सिलसिला हमने उनके बचपन से शुरू किया.फिर जो मैंने सुना उसने मेरी आखों को नम कर दिया.आइये मेरे साथ उर्मिल के गाँव चलते हैं.जहाँ से नन्ही उर्मिल का जीवन शुरू हुआ.
साल १९३८, अविभाज्य भारत के पंजाब प्रान्त का एक सबसे समृद्ध नगर लाहौर, जिसमें में एक शिक्षा अधिकारी की कोठी में एक बच्ची की किलकारी गूंजी.जो अपने माता-पिता की आठवीं और आख़िरी संतान साबित हुई.नामकरण में ‘’उर्मिल’’ नाम प्राप्त हुआ. उन दिनों रावलपिंडी और शिमला भी पंजाब प्रान्त के हिस्से थे.समय के साथ उर्मिल ने लाहौर के प्रतिष्ठित विद्यालय देवसमाज विद्यालय में प्रवेश किया.समय अपने गति से चल रहा था.साल-दर-साल बीत रहे थे.उर्मिल भी समय के साथ पढाई और उम्र में बढ़ रही थी. १-२-३-४. देश की आज़ादी का आन्दोलन जब चरमोत्कर्ष पहुँचा,तो एक नया बखेड़ा प्रारम्भ हुआ.भारत विभाजन.
  हिन्दू बनाम मुसलमान अर्थात भारत बनाम पाकिस्तान, अचानक पूरा भारत गृहयुद्ध में बदल गया.कल तक जिस लाहौर की हवा में उर्मिल हँसती गुनगुनाती थी.अचानक घर में कैद हो गयी. चेहरे पर डर के भाव तैरने लगे. लाहौर की हँसती – गुनगुनाती कई गलियाँ वीरान और कई श्मशान हो गयी.१५ अगस्त १९४७ को भारत का शरीर दो हिस्सों में बंट चुका था.अब श्रीमान शामचंद्र जैन अचानक पाकिस्तानी हो गये और रातों - रात पूरा का पूरा मोहल्ला कहाँ चला गया,किसी को कुछ खबर नहीं.बचा तो बस उर्मिल का परिवार.जैन साहब सेवा निवृत हो गये थे.सारी पूँजी १८ कमरों की कोठी बनाने में खर्च कर दी थी.वे सबको दिलासा देते १०-५ दिनों में सब शांत हो जायेगा.हम पाकिस्तान में ही रहेंगे,पर जब 10 दिन बाद भी हालात नहीं सुधरे और पूरा परिवार अपने घर के अन्दर कैदी सा हो गया और घुटन होने लगी. हर पल मौत के साए का डर सताने लगा. उसी बीच एक दिन शायद २७ या २८ अगस्त को किसी ने दरवाज़ा खटखटाया. एक बार सबकी सांसे थम गई.किसी अनहोनी की डर से. बाहर से आवाज़ आई यदि कोई अन्दर है तो दरवाज़ा खोलिए, हम भारत की पुलिस हैं.आप को कुछ नहीं होगा. बड़ी मुश्किल से जान हथेली पर रखकर न चाहते हुए अविश्वास के साथ दरवाज़ा खोला गया.अचानक पूरे मरणासन्न परिवार में जान आ गई.सामने असली पुलिस थी.पुलिस वाले ने कहा आप लोग अपना सामान समेट लीजिये. हम दो घंटे बाद आयेंगे.फिर साथ चलेंगे. माँ के पास दुबकी उर्मि तब चौथी कक्षा में थी. आखिरकार तीन दिन रिफ्यूजी छावनी में पुलिस सुरक्षा में बिताने के बाद लाहौर से रेल द्वारा अमृतसर पहुँचे. उर्मि को यात्रा अच्छी लगी. कोई खून–खराबा नहीं. पर २८ अगस्त १९४७ के बाद कोई रेल अमृतसर नहीं पहुँची. रेल और स्टेशन लाशों से बिछ गये थे.उर्मि को बाद में ये बात पता चली. अब तक उर्मी ८ साल की हो चुकी थी.अमृतसर से उर्मि का परिवार दिल्ली के करोलबाग में अपने एक चाचा के यहाँ शरण पाया.यहाँ से उर्मी फिर से पुरानी पहचान ‘भारतीय’ पा गई. खैर काफी जद्दोजहद के बाद गोलमार्केट के एम.बी.बालिका उच्च विद्यालय में उर्मि के शिक्षा का सफर फिर से प्रारम्भ हुआ और डेल्ही पोलीटेक्निक में ५ वर्षीय कला डिप्लोमा के साथ संपन्न हुआ.जिसके प्रधानाचार्य प्रसिद्धकला व शिक्षाविद भुवनचंद्र सान्याल थे. इस बीच छात्रों को ललित कला अकादमी में प्रतिस्पर्धा हेतु आमन्त्रित किया.जिसमें उर्मिल प्रथम आयी. चित्रकला प्रदर्शनी में उनकी चित्रकला उनके निर्धारित किये मूल्य १०० रूपये में पहले ही दिन ही बिक गयी.यहाँ से उर्मि अब पूरी तरह उर्मिल जैन बन चुकी थी. साल था १९५९. अपनी खुद की पहचान के साथ.
  उसके बाद फिर से उर्मिल जैन ने अंग्रेजी विषय से स्नातक किया. इसी बीच साल १९६२ में उर्मिल जैन का विवाह एक होनहार युवा दयाचन्द्र जैन जो बिजली विभाग में स्पेशल आफिसर थे.उनके साथ कर दी गयी. इस तरह उर्मिल जैन एक गृहणी हो गयी.पति के तबादले के साथ कभी चंडीगढ़ कभी अहमदाबाद और कभी मुंबई भटकती रही. आखिरकार मुंबई आख़िरी ठिकाना बना.इस बीच उर्मिल जैन ३ संतानों की माँ बन चुकी थी. माँ का दायित्व निभाने में जवानी कब हाथ छुड़ाकर भाग गयी पता ही नहीं चला.अचानक जब साल १९८८ में उर्मिल जैन की माँ का देहावसान हो गया.जिनके वे बेहद करीब थी.तो उर्मिल अन्दर से टूट गयी और इतना टूटी कि अवसाद ग्रस्त हो गयी.ऐसे में उन्हें मन बहलाने के,अवसाद से बाहर निकालने की तमाम कोशिशों में एक कोशिश चित्रकला भी थी, पति व बच्चों ने अपनी माँ को प्रोत्साहित किया.उनका प्रोत्साहन काम आया और उर्मिल जैन अवसाद से बाहर आते हुए बेतरीन काम किया. १९९२ में पहली चित्रकला प्रदर्शनी ‘’आर्ट प्लाज़ा’’ में साझातौर पर लगी किन्तु जल्द ही उन दिनों की मशहूर चित्रकला दीर्घा ग्रीन्लेंज आर्ट गैलरी में एकल चित्रकला प्रदर्शनी लगी. जिसमें कुल दस चित्रकला शामिल थी.जो बेहद सफल रही. एक चित्रकला प्रेमी महिला उनके घर आकर दो चित्रकला खरीद कर ले गयी.इसके बाद तो कारवां बढ़ता ही गया. धीरे – धीरे देश से विदेश तक उर्मिल जैन की कला यात्रा पहुँची. देश की शान कही जाने वाली और चित्रकारों की ख्वाहिशगाह कालाघोड़ा स्थित जहांगीर कला दीर्घा में आख़िरकार १९९५ में एकल चित्रकला प्रदर्शनी हुई. जो पर्यटकों को भी प्रिय है.अपनी वास्तुकला के लिए जहाँगीर जग प्रसिद्ध है. इस बीच उन्होंने साहित्य की तरफ भी रुख किया और फलस्वरूप २००५ में पहला कविता संग्रह  “जाड़े की एक धूप’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. जिसकी भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार मालती जोशी ने लिखी.यह कविता संग्रह उन्हें सम्वेदना और समाज की दुनिया में कई कदम आगे ले गया, उसके बाद तो १९९८- २००६ में भी जहाँगीर कला दीर्घा में एकल चित्रकला प्रदर्शनी हुई. किन्तु परिस्थितियों ने कुछ कदम पीछे भी कर दिया.शिक्षा पूरी होते ही बच्चों के सपने अचानक माँ – पिता से बड़े हो गये. ज्यादा की चाह में बच्चे प्रतिभापलायन का शिकार हो गये. अमेरिका में अपना नया घोसला बनाया. ऐसे में कविताओं, चित्रकला और सेवा निवृत पति ने साथ दिया.पर २०१४ में वे भी साथ छोड़ स्वर्ग सिधार गये. उसके बाद तो आख़िरी सहारा बनी कविता और चित्रकला और पूरी जीवटता के साथ एक नये रंग में ७७ साल की आयु में फिर से २०१५ में जहाँगीर कला दीर्घा में एकल चित्रकला प्रदर्शनीकर झंडा गाड दिया. 
अपनी चित्रकला के साथ उर्मिल जैन




जाड़े की धूप संग्रह की एक कविता


उर्मिल जैन के साथ लेखक पवन तिवारी 






उर्मिल जी के कुछ चित्र व एक रचना भी

        

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