सभी मेरे प्रश्नों के तुम ही थे हल
तुममें
ही अपना मुझे दिखता था कल
परिचित
तो बहुत एक अपने थे तुम
अपने
ही ने अपने से कर डाला छल
एक
ही क्षण में उसने बदला था दल
आघात
के जैसा था एक - एक पल
छीना भरोसे ने भरोसा सारा
गुम हो गया जैसे ही
सारा बल
क्या
कहूँ सूख गया जीवन का जल
उसके
ही सांचे में गया था मैं ढल
हिम
होके उसकी ख़ातिर था गया मैं गल
फिर
भी नहीं निभाया उसने था साथ
वैरी
से मिलकर दिया था ऐसा फल
क्या
कहूँ सूख गया जीवन का जल
मित्र जिसे माना था निकला वो खल
आकाश
समझा था निकला
सुतल
जीवन
से शुभदा का शब्द गया टल
मन
कहता इस जग से चल जल्दी चल
क्या
कहूँ सूख गया जीवन का जल
पवन
तिवारी
१६/०७/२०२५