पीड़ा पर सब मेरे
मौन हैं
और चाहते जग
पर बोलूँ
अंग–अंग बेधित है व्याधि से
और चाहते हैं सब डोलूँ
किसको नहीं पड़ी है किसकी
सबको अपनी लगन लगी है
होंगे असहमत बहुतेरे पर
यह भी नैतिकता की ठगी है
सोच रहा हूँ क्या
सोचूँ मैं
जिससे मन अच्छा हो जाए
कभी - कभी सोचूँ कि कोई
बिना बुलाये ही आ जाए
कभी - कभी एकाकीपन भी
खलने से ज्यादा
खलता है
कभी-कभी रुग्णता से ज्यादा
सोच - सोच के भी गलता है
संबल या साथी कह लूँ मैं
एकाकीपन में ये
कविता
चारो और अन्धेरा है जब
मेरे लिए बनी है सविता
पवन तिवारी
१२/०२/२०२३