मित्रों
मैनें ये कहानी 17 वर्ष की उम्र में लिखी
थी. आज इसी कहानी पर हिन्दी में
‘’गोल्डन रेज ऑफ स्लम ज्वेल्स’’ नामक फिल्म बन रही है.जिन मित्रों या पाठकों को
हिन्दी साहित्य में रूचि है और उन्होंने ये कहानी नहीं पढी है उनके लिए विशेषतौर
पर अपने ब्लॉग पर इसे प्रकाशित कर रहा हूँ.ये कहानी मुंबई जैसे शहर में
रात्रिकालीन स्कूलों में पढ़ने वाले किशोर वय के बच्चों की है. आशा करता हूँ आप को
पसंद आयेगी .
मुंबई आकर मुझे दो साल के करीब हो गए थे. मैं
उन दिनों इमारतों में बंगलों में रंगाई का काम करता
था. मैं तब काफी छोटा था ,यही कोई 12- 13 साल का. शायद
ही कोई मेरे उम्र का इस काम में रहा हो. अगर रहे भी होंगे तो इक्के -दुक्के .एक बार मैं मुलुंड में एक
सेठ के फ्लैट में काम करने गया . वहाँ मुझे देखते ही सेठ बोले यह
बच्चा क्या काम करेगा ऐसे बच्चों से काम करवाओगे तो एक महीना और लग जाएगा. एक तो वैसे ही काम खराब हो गया है.
जिन्होंने रंगाई का ठेका लिया था, उन दिनों वे मेरे घनिष्ठ मित्र हुआ करते थे ,काफी
जिद करने पर मैं वहां काम करने गया था क्योंकि मैं पहले से ही दूसरी काम कर
रहा था. वहां पैसे बहुत कम मिलते थे और मुझे पैसे की सख्त जरूरत थी इसलिए जिनके
यहां मैं काम कर रहा था , उनके यहां दूसरे आदमी की व्यवस्था कर मैं अपनेठेकेदार मित्र के यहाँ आ गया .मित्र का
नाम रामदरश था. राम दरस गृहस्वामी से बोले -साहब जी पहले थोड़ा काम तो देख लीजिए. साहब आपका काम यह लड़का ही ठीक कर सकता
है. गृहस्वामी ने कोई जवाब
नहीं दिया और चहलकदमी करते हुए बेडरूम की तरफ चले गए .
गृहस्वामी थोड़ी देर बाद
व्यवसाय के लिए बाहर चले गए . देर रात वह जब घर लौटे ,तो हाल में एक बार रंगाई हो चुकी थी
. हम लोग हाथ-पैर धोकर कपड़े बदल रहे थे . यह देखकर गृहस्वामी आश्चर्य में पड़
गए. उनको विश्वास ही नहीं हो रहा था , वह कभी मुझे और कभी दीवार को देखते. अगले
दिन गृहस्वामी घर पर ही थे. मेरा काम देख कर वह बहुत
प्रसन्न थे,साथ ही वे मेरी बातचीत से भी काफी
प्रभावित थे . मेरी हिंदी उन्हें काफी
अच्छी लगी थी, मुंबई की आम
बोलचाल हिंदी की अपेक्षा.गृहस्वामी बोले - तुम पढ़ाई क्यों नहीं
करते, तुम्हारी हिंदी बहुत अच्छी है तुम तरक्की कर
सकते हो और इस रंगाई की लाइन में कैसे आ गए . मैं चुप रहा , फिर वह भी अंदर चले गए
मैं अपने काम में लगा रहा और रोज की तरह गुनगुनाता रहा, उन दिनों मैं रंगाई बालों
में काफी बदनाम था. जिसका सिर्फ एक ही कारण था
और वह था मेरा गाने का शौक. मैं काम करता
रहता और साथ में गाना भी गाता रहता, अगर कोई मुझे डांट कर
चुप करा देता ,तो
थोड़ी देर बाद भूल कर मैं फिर गाने लगता .एक
तरह से समझ लीजिए कि मुझे गाने की आदत सी पड़ गई थी मैं काम करता
रहता और गीत गाता रहता. इस तरह समय का पता ही नहीं चलता था.इससे मुझे काम में बोझिलता का एहसास नहीं होता था .मुझे काम और गाने आगे कुछ सूझता ही नहीं था. पढ़ने- लिखने में रुचि के कारण मेरे एक मित्र ने पढ़ाई करने की सलाह दी मैं वास्तव में पढ़ना चाहता
था यह मेरी दिली तमन्ना थी, परंतु
हालात ऐसे थे कि मैं पढ़ ना सका.
रंगाई
का काम अपने अंतिम दौर में था .गृहस्वामिनी आकर मेरा गाना सुन रही थी और मैं गुनगुनाते हुए अपने काम में
मगन था, साथ
में उनकी लड़की भी थी उनकी लड़की मेरे काफी करीब आ गई थी. उन्होंने मुझे कहा
रात्रि[नाईट] के स्कूल में पढ़िए .अभी आप पढ़ सकते हैं मैं एम्. ए
.कर रही हूं. कभी-कभी वह मुझसे बातें
भी करती थी . वह एक दिन मेरे लिए बड़े प्यार से मक्खन लगाकर ब्रेड ले आई .मेरे
खाने के बाद उन्होंने संकोच करते हुए पूछा आप की उम्र कितनी है. मैंने कहा 15 साल .उन्होंने एक लम्बी आह भरते हुए लंबी सांस ली और बोली मेरी 24 साल. मेरी आप की नहीं जम
सकती. वह चली गई. मैं तुरंत समझ न सका . बाद में मेरा दिमाग चला, तो समझ में आया. परंतु तब तक देर हो चुकी थी
फिर मैंने गंभीरता से सोचा . प्यार का उम्र से क्या लेना. फिर भी उसकी उस बात को
लेकर मैं 1 सप्ताह तक परेशान रहा . इस
दौरान अगर मैं किसी
युवा प्रेमी -प्रेमिका को देखता था, किसी सांवली -
सलोनी, बड़ी आंखों वाली लड़की को देखता, तो उसका चेहरा सामने अचानक जबरदस्त तरीके से नृत्य कर जाता खैर धीरे - धीरे मैं
सामान्य हुआ . उसके बाद मैंने एक दिन 1 नाइट स्कूल की खोज की और वहां जाकर आवेदन
किया कि श्रीमान जी मैं पढ़ना चाहता हूं मुझे कक्षा में बैठने की अनुमति दी जाए.
मुख्याध्यापक जी ने मुझसे लिविंग सर्टिफिकेट अर्थात प्रमाणपत्र मांगा तो मैंने कहा
गांव से मंगवाना पड़ेगा. उन्होंने कहा डिप्टी साहब से काउंटर साइन करके मंगवाना. मैंने पिताजी को पत्र
लिखकर भेजा. पत्र में लिखा कि मैं फिर से पढ़ाई करना चाहता हूं. पिताजी खुश थे
.उन्होंने काफी दौड़ धूप की.तहसील से लेकर जिला
शिक्षा मुख्यालय तक .डिप्टी साहब को ढूंढते रहे ,बड़ी मुश्किल से डिप्टी साहब मिले .50 रुपये की रिश्वत भी देनी पड़े फिर कहीं जाकर उनकी साइन मिल सकी . उसके
बादबाबू जी ने परित्याग प्रमाण पत्र स्कूल से
निकलवाकर रजिस्ट्री द्वारा डाक से भेज दिया. इस
तरह काफी जद्दोजहद के बाद एक बार फिर मेरी पढ़ाई शुरू हुई. जब मैं पहले दिन स्कूल
गया तो पीछे की कुर्सी पर जाकर बैठा ,क्योंकि आगे बैठने
की जगह ही नहीं थी मेरा पहला दिन था स्कूल में ,किसी से
कोई परिचय नहीं था, इसलिए चुपचाप बैठा था . 6:00 बजे से
स्कूल था, मैं 5:45 बजे ही स्कूल आ गया था. मैं बेंच पर
बैठा ही था कि एक लड़का मेरे पास आया और बोला क्या रे नया आयला है क्या ? नवी में पढ़ेगा. मैंने धीरे से कहा - हाँ . तभी उसकी नजर मेरी कलम पर पड़ी
. उसने मेरी थैली में हाथ डालकर झट से कलम खींच ली. क्या रे तू तो सॉलिड कदम रखता
है ? कितने का लिया ? मैंने कहा - 20 रुपये.
उसने
कहा - बाप रे, तू तो भारी आदमी है बाप, तभी दो - तीन लड़के और आ गए. उनमें से एक बोला- क्या रे तू भी पढ़ेगा क्या ? तभी दूसरा बोला - चुप, क्या रे भाई तू कौन से स्कूल से आया है ? मैंने
कहा मैं किसी स्कूल से नहीं आया हूं. मैं यहां पढ़ने आया हूं, नाम लिखा कर . उसी टोली में से एक बोला अच्छा समझा तू गांव से आया है ना .
तेरा गांव कौन सा है ? मैंने कहा- फैजाबाद. एक दूसरा लड़का बोला - अयोध्या, फैजाबाद . मैंने कहा हाँ . मन में सोचा इसका सामान्य ज्ञान तो अच्छा है.
इधर
मैं बातों में उलझा रहा उधर मेरी कलम लेकर वह लड़का चला गया . मैं तनाव की गिरफ्त
में आया ही था कि तभी एक दूसरा लड़का वहां आया और
मुझसे धमकी भरे लहजे में बोला- ये अपना टेबल साइड ले .इससे पहले कि मैं कुछ बोलता
उसने बोल दिया . ये बोलने का नहीं, मैं पहले से
यहां बैठता हूं. चल तू पीछे चल. ऐसे क्या देखता है. बोला ना पीछे चल. वह लगातार
बिना किसी अर्ध या पूर्णविराम के बोलता रहा . मैं थोड़ा सहम कर बगैर कुछ बोले पीछे चला गया . मैं सोचने लगा ,मैं स्कूल पढ़ने आया हूं या बंजारों के बीच में. मुझे काफी दुख हुआ. मैं धीरे से थोड़ा डरा हुआ अपने स्थान से उठा और सीधे
अपने मुख्याध्यापक जी के पास गया . उन्हें अपनी परेशानी से अवगत कराया. उन्होंने
कहा डरना मत . धीरे - धीरे सब ठीक हो जायेगा. तुम जाओ अंदर कक्षा में बैठो. मैं
अभी आता हूं .थोड़ी देर बाद गुरुजी आए और सब को डांट लगाई ,कि इन्हें अर्थात मुझे कोई परेशान न करें. स्कूल की लड़कियां भी ''तेरे को मेरे को'' करके बात करती . मुझे अजीब
सा लगता और बेहद बुरा भी पर मैं कुछ कर नहीं सकता था. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में था. मुझे दरअसल सम्मानजनक शब्द 'आप और तुम' की आदत हमेशा से रही थी और मैं सभी
से इसी शैली में बात करता था . ''तेरे को मेरे को'' तो हमारे गांव में किसी गाली से कम नहीं समझा जाता है. क्या रे ? इतना कहा की लाठियां निकल जाती थी, परंतु मुंबई
की असली हिंदी तो ''तेरे को मेरे को'' ही है. स्कूल में आकर मुझे ऐसा ही प्रतीत हुआ.
स्कूल में आज मेरा दूसरा दिन था .महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री यशवंतराव चौहान के जीवन का कोई विशेष दिन था .जिस पर निबंध लेखन स्पर्धा का आयोजन किया गया था निबंध कम से कम 500 शब्दों में लिखना था इस स्पर्धा में स्कूल की तीनों कक्षाओं आठवीं, नौवीं और दसवीं के छात्र छात्राओं ने भाग लिया. उसमें एक छात्र के रूप में मैं भी शामिल था .एक निश्चित समय बाद सबसे ले ली गई. कापियां जमा करने के बाद तत्काल जांची गई . 1 घंटे के अंदर सब काम पूरा हो गया. अब बारी थी प्रथम, द्वितीय और तृतीय विजेता की घोषणा की. सबकी निगाहें सामने बैठे अध्यापक, मुख्याधापक पर गड़ी . कि कब घोषणा हो और पता चले की सर्वश्रेष्ठ निबंध लेखक कौन है . जब मुख्याध्यापक अपने स्थान से विजेता का नाम घोषित करने के लिए खड़े हुए . तो मेरी धड़कन काफी तेज हो गई थी. मैं सोच रहा था कि वह कौन भाग्यशाली होगा ? जिसे प्रथम पुरस्कार मिलेगा. तभी दसवीं के छात्र का नाम प्रथम पुरस्कार के लिए घोषित हुआ . सब ने जोरदार तालियों के साथ उसका स्वागत किया . वह विद्यार्थी दसवीं का मानीटर और पूरी कक्षा का लाड़ला था . पढ़ने में भी अच्छा था .अध्यापकगण भी उसे बहुत मानते थे. अब दूसरे विजेता की घोषणा की बारी थी .निबंध स्पर्धा के दूसरे विजेता का नाम पूरे स्कूली विद्यार्थियों के लिए नया था. वह इधर - उधर देखने लगे. मैं अपनी जगह बैठा रहा .तभी गुरुजी ने मुझे इशारा किया .मैं खड़ा हो गया, अपने स्थान पर, सावधान की मुद्रा में, सब लोग मुझे देख रहे थे और मैं खुद को इस स्थिति में पाकर असहज महसूस कर रहा था. तीसरा स्थान भी नवी कक्षा के एक मेधावी छात्र को मिला . सभी 3 विजेताओं का स्कूल के विद्यार्थी परिषद की संयुक्त सचिव बरखा जी के हाथों स्वागत हुआ , परंतु पुरस्कार स्वरूप विजेता के निर्णय में मतभेद उभर आए थे कुछ अध्यापकगण मुझे प्रथम पुरस्कार देने के पक्ष में थे , परंतु कुछ लोगों का मत दसवीं के मानीटर के पक्ष में था .उन लोगों का तर्क था कि यह स्कूल का पुराना बच्चा है कक्षा का मानिटर है .सभ्य है . अगर उसे प्रथम पुरस्कार नहीं दिया जाएगा तो, उसका मनोबल टूट जाएगा और यह तो अभी नया है और अभी नाम भी रजिस्टर नहीं चढ़ा है .तभी एक अध्यापक ने कहा - कुछ भी हो, है तो अपने ही स्कूल का बच्चा . आज नहीं तो कल, रजिस्टर में नाम चढ़ ही जाएगा .फिर भी नौवीं में मेरा बहुत नाम हो गया और पूरे स्कूल में भी ,लोगों का बर्ताव दूसरे दिन से ही मेरे प्रति बदल गया .बहुत से लोगों ने मुझे बधाइयां दी. हाथ मिलाए व नाम पूछा धीरे - धीरे कुछ ही दिनों में स्कूल में मेरी अच्छी इज्जत बन गई. सब लोग मुझे सम्मान देते .मैं भी सबको आप कहकर संबोधित करता . उन दिनों मेरी कक्षा में 4 छात्राएं भी थी. मिस गुप्ता उर्फ़ ''चने वाली '' दूसरी थी, मिस कुट्टी उर्फ़ पैसेंजर , तीसरी थी मिस मौर्या उर्फ ‘’कुछ नहीं’’ मतलब उसका दूसरा उपनाम नाम नहीं था. वह स्कूल में सिर्फ परीक्षा के समय दिखाई पड़ती थी , या कभी-कभी स्कूल के किसी समारोह के अवसर पर .चौथी थी मिस मिश्रा उर्फ ''भंगार वाली'' अब आप सोच रहे होंगे कि यह उर्फ़ वाला मामला क्या है ? मैं ही बता देता हूं. मिस गुप्ता उर्फ ''चनेवाली'' मतलब अनीता गुप्ता. उनके पिताजी भुने हुए चने, लाई और मूंगफली की छोटी सी दुकान चलाते थे. जिससे उनके परिवार का भरण - पोषण होता था. जिसके चलते हमारे कक्षा के छात्रों ने अनीता का नामकरण किया था. वह शुभ नाम था ‘’चनेवाली’’ दूसरी थी मिस कुट्टी उर्फ़ ‘’पैसेंजर’’.मतलब नैना कुट्टी . इनके एक पैर में कुछ विकृति होने के कारण बहुत धीरे - धीरे चलती थी . इसलिए इनको कक्षा के छात्रों ने 'पैसेंजर'' जैसा शुभ नाम दिया और अब चौथी और अंतिम मिस सावित्री मिश्रा उर्फ भंगार वाली. इनके पिताजी का भंगार अर्थात कबाड़े का व्यवसाय था. इसलिए इनका छात्रों द्वारा ‘’भंगार वाली’’ नामकरण हुआ. इन चारों छात्राओं में सबसे मालदार अर्थात धनी भंगारवाली थी.ऐसा मेरे कक्षा के अन्य छात्र कहते थे. शायद इसका एक कारण यह भी था कि वह स्कूल में अक्सर कुछ न कुछ खाती रहती थी. जैसे वडा-पाव, भेलपूरी, ब्रिटानिया बिस्कुट, कभी- कभी कैडबरी चॉकलेट.
सावित्री मिश्रा 14 वर्ष की अवस्था में ही एकदम नवयौवना लग रही थी. पूरे स्कूल के छात्रों की नजर ‘’भंगारवाली’’ पर लगी रहती. उसके होठ बिना लिपस्टिक के लगाए ही गुलाब जैसे लाल थे. बड़ी - बड़ी आंखें, लंबाई खास नहीं थी, परंतु देखने में बेहद अच्छी थी. ऐसी जैसे सांचे में ढाली हुई हो. हरा - भरा शरीर, उस पर उभरे उरोज, उसके किशोर यौवन में चार चांद लगा रहे थे. उस पर चुस्त सलवार - कमीज और ओढ़नी, और सबसे आकर्षक उसके नखरे, हर कोई उसके नखरे झेलने को तैयार रहता था. यहां तक कि एक अध्यापक महोदय भी. इससे ज्यादा उसका बखान और क्या ? यहां तक तो ठीक था, मगर इसके आगे बिल्कुल ठीक नहीं था और वह थी , उसकी गुंडों वाली स्टाइल में बात करना. क्या रे.... आएला, गयेला, तेरे को, मेरे को , ये उनके मुखारबिंद के प्रारंभिक शब्द होते थे.वह गुरुजनों को छोड़करशेष सभी को ‘’तेरे को मेरे को ‘’ लगाए रखती . मुझे भी वह कई बार बोल चुकी थी . एक दिन मेरा दिमाग उनकी इस खास शैली की बातों से भर गया . मैंने कहा- सुनिए आप मुझसे ‘’तेरे को मेरे को’’ की भाषा में बात न किया करें. फिर क्या ? वह अपने खूबसूरत लंबे बालों को झटकते हुए तुनक कर बोली - ज्यादा मत बोल. मेरे से बड़ा आया आप तुम वाला. उनके इस तरह के जवाब को मैंने सीने में जप्त कर लिया और चुप रहा . मैंने सोचा जाने दो वक्त आने पर खुद सुधर जायेंगी. उस पर भी लड़की वाला मामला है. सब बात आकर ‘’लड़की है ना’’ पर खत्म हो जाती. आज तक ‘’लड़की है न’’ वाला जादू मेरी समझ में नहीं आया. कई बेगुनाह लड़के व पुरूष बदमाश लड़कियों व औरतों के ओछेपन के कारण पिटे हैं. मैंने स्वयं ऐसा होते कई बार देखा है .लड़की कुछ भी गलती करे परंतु, सब दोष लड़कों पर ही लगे. स्कूल में जब भी कोई लड़की- लड़का विवाद होता, तो गुरुजन लड़के का पक्ष बिना सुने बोल देते- दोष तुम ही लोगों का रहा होगा. यह गुरुजनों का हम लड़कों के बारे में तकिया कलाम होता था और उनका मन थोड़ा ज्यादा इसलिए भी बढ़ गया था कि हमारी कक्षा के मजनूँनुमा छात्र, जिनमें धीरज, अशोक, शिवा व शैलेंद्र प्रमुख थे. जो उसकी गलतियों को अक्सर नजर अंदाज किया करते .उसके हुस्न को देखकर. वही हमारी कक्षा के असली दादा भी थे.
हमारी कक्षा की दूसरी छात्रा अनीता गुप्ता मुझसे अच्छी तरह से बात करती थी. हमारी उनकी अक्सर पढ़ाई-लिखाई के संदर्भ में बात भी होती थी.वह मेरे और मिस मिश्रा के बिगड़े संबंधों को जानती थी और उसने सुधार लाने की भी पहल की. उसने नखरची ‘’भंगारवाली’’ से कहा कि उससे अर्थात मुझसे ‘’आप तुम वाली’’ भाषा में बात किया करें. वह भी तो तुझसे ‘’आप तुम’’ की भाषा में बात करता है और तूं लड़की होकर भी टपोरी लड़कियों जैसी बातें क्यों करती है. इस पर वह मिस ‘’चनेवाली’’ पर भी भड़क गई. तू आई मेरे को बड़ी सिखाने वाली .दोनों के बीच कक्षा में ही झगड़ा हो गया . अशोक ने बीच- बचाव कर मामला शांत कराया .
धीरे – धीरे 6 महीने बीत गए. सब कुछ मजे में चल रहा था. मैं कक्षा का मॉनीटर नियुक्त किया गया था. छात्रों की उपस्थिति में पहले की अपेक्षा काफी सुधार था. स्कूली सभ्यता जो अब तक बिगड़ी हुई थी धीरे – धीरे सुधर रही थी. सभी छात्रों में व्यवहार को लेकर बदलाव हो रहा था, सिर्फ एक अपवाद को छोड़कर और वह अपवाद थी सुश्री महोदया सावित्री मिश्रा जी . उनका पुराना रवैया एकदम बरकरार था. 6 महीने बाद आखिर उन्होंने मुझसे किसी बात को लेकर बोल ही दिया ‘’तेरे को’’ वाली खास शैली में. फिर क्या ? मुझे भी क्रोध आ गया. फिर मैं शुरू हो गया. किसको कहा तेरे को ? तुम्हारा नौकर हूं क्या मैं ? क्या समझती हो खुद को ? उन्होंने कहा- तुझको कहा. क्या करेगा ? मैंने कभी अपने बाप को आप नहीं कहा, तो तूँ क्या है ? तू मॉनिटर बन गया तो अपने आपको तीसमार खां समझता है. तेरे जैसे कितने आएले समझा ! मैं टुकुर - टुकुर देखता रह गया . कक्षा के छात्र मेरा ए हश्र होते देख हंस पड़े. मैंने फिर छात्रों की तरफ देखा तो, वह सिर झुका कर अपनी हंसी रोकने का असफल प्रयास कर रहे थे. वह शायद मन ही मन सोच रहे थे. ,बेचारा मानीटर, ‘’बुरा फंसा’’ बेचारे की ‘’इज्जत का फालूदा’’ हो गया .भंगारवाली से कायको को पंगा लिया. थोड़ी देर तक मैं यथा स्थान हक्का-बक्का खड़ा रहा. मेरा भंगारवाली की तरफ ध्यान ही नहीं रहा कि वह कब कक्षा से बाहर चली गई और हमारे पूज्य कक्षा अध्यापक महोदय रमेश गुरु जी को बुला लायी. गुरु जी के साथ कक्षा में प्रवेश करते ही फूट फूट कर रोने भी लगी. यही शायद लड़कियों का आखरी अस्त्र अर्थात ब्रह्मास्त्र होता है. उसके आंसुओं ने उसके सारे पाप धो दिए और मुझ पर शायद पोत दिए. उसकी रोनी सूरत की तरफ गुरुजी ने एक हल्की दृष्टि डाली और फिर मुझसे मुखातिब होते हुए बोले- सावित्री से माफी मांगो. इतना सुनते ही मेरे होश उड़ गए. मुझे रमेश गुरुजी से ऐसी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी. क्योंकि वह मुझे भी बेहद प्यार करते थे. ऐसे मौके पर मुझे अम्मा द्वारा कही गई अवधी की वह कहावत याद आ गई. ‘’रोवै गावै तोरै तान, तेकर दुनिया राखै मान’’ अर्थात जो रोने गाने झगड़ने सब में माहिर हो, दुनिया उसी की सुनती है. मैंने गुरुजी से मौका देख कर कहा- ‘’गुरुजी’’ जब मैंने कोई गलती नहीं की तो, मैं माफी क्यों मांगूं ? क्षमा करें गुरुजी , बिना गलती माफी नहीं मांगूंगा. इस पर गुरु जी फिर से परेशान हो गए. यह उनके सम्मान को ठेस पहुंचने जैसा हो गई. जबकि लड़की और सुबकने [रोने] लगी. गुरुजी हालात की नजाकत को देखते हुए बोले ठीक है. तुम्हारी गलती नहीं है परंतु, फिर भी, मेरे कहने पर, मेरे लिए माफी मांग लो. बाद में गुरुजी ने उस लड़की से भी माफी मंगवाई और उसके बाद एक टिप्पणी करते हुए उस लड़की को बोले- कल अगर आपकी शादी हो जाएगी तो क्या आप अपने पति से इसी तरह ‘’तेरे को’’ की भाषा में पेश आओगी. स्कूल में लोग अच्छे संस्कार व अच्छी सोच के लिए पढ़ने आते हैं . कुसंस्कार सीखने नहीं, इतना कहकर गुरुजी कक्षा से बाहर चले गए. उनकी टिप्पणी उस लड़की का मजाक उड़ाने के लिए काफी थी. सभी छात्रों की जुबान पर वह बात थोड़े समय के लिए ही सही, पर चढ़ गई और मुझसे उनका वाक् युद्ध ‘’तेरे को मेरे को’’ फिर कभी नहीं हुआ.अलबत्ता उसने स्कूल छोड़ने के समय [दसवीं में] मेरे पास आकर बड़े प्यार से, फिर भी थोड़े अकड़ वाले अंदाज में बोली- पवन जरा 15 अगस्त वाला गाना सुनाना. इति शुभम
चर्चित
कहानी संग्रह ‘’चवन्नी का मेला’’ [2005]
से साभार