जीवन
निशदिन छूट रहा है
जैसे मुझसे रूठ रहा
है
क्या
बतलाऊं समझ न आता
अंदर
ज्यों कुछ टूट रहा है
जीवन
निशदिन छूट रहा है
तेरा मेरा सब करते हैं
अपना
अपना सब भरते हैं
अवसर
पाते ही सब के सब
औरों
पर बोझा धरते
हैं.
सब
कोई सब को कूट रहा है
जीवन
निश-दिन छूट रहा है
कोई
– कोई मुस्काते
हैं
कोई
- कोई ही गाते हैं
ज्यादा
रोने
जैसे चेहरे
उदासियाँ
भर भर खाते हैं
बहुमत
में अब झूठ रहा है
जीवन
निशदिन छूट रहा है
फिर
भी जग बहता सा दरिया
सुख
दुःख ही जीवन का जरिया
भूखे
पेट
भी
हंसने वाले
देखो
जैसे अपना हरिया
जग ही जग हो लूट रहा है
जीवन
निश-दिन छूट रहा है
बड़ी
मीन छोटी को
खाती
खाकर
शान्ति गी त है गाती
ऐसे
ही स्वभाव की दुनिया
निर्बल
पर बल अजमाती
है
जहाँ जो पाये लूट
रहा है
जीवन
निश-दिन छूट रहा है
पवन
तिवारी
०९/०४/२०२५
संवाद
: ७७१८०८०९७८