चवन्नी का मेला

यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

ज़िंदगी छूटती जा रही हाथ से


ज़िंदगी  छूटती  जा  रही  हाथ से

बात बनती नहीं आज कल बात से

किस फरेबी ने भी चाल कैसी चली

सारे  संबंध  लेकर  गया  घात से

 

बिन किसी बात के सब छिटकते गये

इक सहज बात पर भी बिदकते गये

कुछ समझ पा रहा था नहीं क्या हुआ

देखते – देखते   हम  बिखरते  गये

 

द्वार  आशा  के सब बंद यों हो गये

निर्गत  काव्य  से  छंद ज्यों हो गये

मुँह के बल गिरती जाती रही कोशिशें

जो भी अच्छा किये दण्ड क्यों हो गये

 

फिर अचानक ही सब ठीक होने लगा

मेरा  बोझा  कोई  और  ढोने  लगा

फिर समझ आया खेला था सब काल का

ऐसी खुशियाँ मिली हँस के रोने लगा

 

पवन तिवारी 

१३/१२/२०२४     


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

जब सब तुमसे भाग रहे हैं



जब सब तुमसे भाग रहे हैं,

सब तुमको अनसुना हैं करते,

हाथ जोड़ कर जो मिलते थे;

देख के वे अनजान हैं बनते!

नम्बर जो पहले मांगे थे,

वे न उठाते फोन तुम्हारे!

 

समय ने थोड़ा क्या मुँह फेरा,

बदल गये हैं सारे प्यारे;

समय नहीं इक जैसा रहता

अदला बदली चलती रहती!

कुछ भी स्थिर नहीं रहा है,

रिश्ते भी दिन रात के जैसे!

 

एक नहीं बदले हैं केवल

ध्यान दिया क्या देव तुम्हारे!

उनसे कह दो, वे सब सुनते;

कभी न वे उपहास उड़ाते!

जब भी जाओगे तुम मिलने

वहीं मिलेंगे, जहाँ मिले थे.

 

सदा सुने थे, सदा सुनेंगे,

बस उनसे स्थाई नाता!

शेष है जो भी कुछ माया है,

इतना समझ लिया भी जिसने

फिर तो दुःख भी गाया है.

 

पवन तिवारी

१२/१२/२०२४  


सोमवार, 9 दिसंबर 2024

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में


पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

राम विराजें सीता संग जिस धाम में

त्रिविध ताप को हरने वाले

सब  गुण हैं जिस नाम में

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

 

जहाँ  कभी न  युद्ध हुआ है

मन सरयू सा  शुद्ध हुआ है

जहाँ  लोग   मर्यादित  होते

जग  बसता  जिस  राम में

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

 

बजरंगी  जिस  गढ़ी  बसे हैं

मंदिर – मंदिर  राम  रचे  हैं

जिस नगरी के सुर गुण गायें

मंत्र   उठें   हर   याम  में

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

 

जन जन का मन हरस रहा है

प्रेम  अवध  में  बरस रहा है

कुछ दिन  तो  आनंद उठाओ

हमरे   राम   के   धाम  में

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

 

पवन तिवारी

०९/१२/२०२४

   

 


शनिवार, 7 दिसंबर 2024

अर्थ


 



आज कल कुछ ज्यादा ही

बदल दिया है

अर्थ ने खुद से अधिक औरों को,

अब यही देखो-

अर्थ ने ज़िन्दगी का

अर्थ बदल दिया है!

अर्थ न हो तो ज़िन्दगी का

जैसे अर्थ ही नहीं रह गया है!

अर्थ न हो तो लोग

जाने क्या - क्या

अर्थ लगाते हैं ? और

अर्थ हो तो अर्थ ही अर्थ,

अर्थ के जाने कितने अर्थ !

और न हो तो,

कई बार अर्थ का अनर्थ !

अर्थ क्या - क्या

अनर्थ करता है ;होने पर

और न होने पर,

कि अर्थ का अर्थ ही

नहीं रह जाता !

या रहता है पर,

समझ में नहीं आता !

अर्थ का क्या अर्थ निकालें-

अच्छा या बुरा! फिर भी,

अर्थ का अर्थ तो है,

समझ आये या न आये,

पर अर्थ का अर्थ,

कम - ज्यादा बच्चे,

बूढ़े, महिला, खासकर

गरीब को सबसे ज्यादा

समझ में आता है !

अर्थ के कितने अर्थ हैं-

कोई नहीं जानता !

बस अर्थ जानता है-

अपना सही अर्थ !

शेष को मानता है-

अपने आगे व्यर्थ !

कोई व्यर्थ हो न हो,पर

अर्थ का अर्थ तो है,

इसे सब मानते हैं!

इससे अधिक

अर्थ का अर्थ क्या समझा...?

 

पवन तिवारी

०७/१२/२०२४   

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

खिड़की से निहारा



खिड़की से निहारा

तो देखा बाहर

बहुत कुछ रहा है,

कुछ ऐसा कि धड़ से

खिड़की बंद कर दिया !

और अंदर में कोई

जैसे- रो रहा है;

सिसक – सिसक कर !

और हाँ, ध्यान गया इधर

तो देखा बगल में

कोई सो रहा है !

जैसे मैं किसी को

पहचानता ही नहीं,

शायद खुद को भी !

इतना कुछ कहने पर

आप तो समझ ही गये होंगे

कि मैं क्या कह रहा हूँ ?

और यदि नहीं समझे

तो मैं इससे ज्यादा

बताऊंगा नहीं,

खैर, छोड़िये ! अच्छा ये बताइये-

अंदर से रोता हुआ आदमी

बाहर से हंसते हुए

कैसा लगता है ?



पवन तिवारी

३/१२/२०२४  

  

 


सोमवार, 2 दिसंबर 2024

कविता अश्रु बहाती



कविता अश्रु बहाती कवि की सजल नयन बाँहों में

रक्त से सींचे गये शब्द का मोल नहीं जल जितना

इस शिक्षित समाज में भी साहित्य है सकुचाया सा  

शब्द साधना समझ न पाया पढ़ लिखकर भी इतना  

 

वर्तमान भी भूल  गया  है  अब शब्दों की महिमा

शब्द   ब्रह्म  है, गायत्री  है, वही  शारदा,  सविता  

गज़ब  समय कि पढ़े लिखे पढ़ने सुनने से भगते

कौन  बताये  संवेदन  की उच्च समुच्चय कविता  

 

उस समाज का क्या होगा साहित्य विरोधी जो है

जिसके घर का हर कोना ही पुस्तक से वंचित है

उसका कैसे  संभव  होगा, संस्कार उत्थान भला

जिसके उथले से  जीवन में, केवल मद संचित है

 

जिस समाज में  मान नहीं होता कवि लेखक का 

उस  समाज   का  कभी  सही  उत्थान नहीं होता

जिस समाज में कवि भूखा, लेखक अपमानित है

उस  समाज   का  कहीं  कभी सम्मान नहीं होता  

 

पवन तिवारी

३/१२/२०२४  


रविवार, 1 दिसंबर 2024

मुझको ठुकराने वालों



मुझको  ठुकराने  वालों   खोजोगे  पछताओगे

आओगे  सौ  बार  यहाँ पर मुझको ना पाओगे

समय मुझे जो नचा रहा है क्या तुमको छोड़ेगा

बली समझने वाले खुद को समय से बच जाओगे

 

विश्व विजेता अर्जुन इक दिन भीलों से हारे थे

परम  मित्र  थे  वासुदेव  के, बहनोई प्यारे थे

कुरुक्षेत्र  में  वासुदेव  उनके  रथ के हंकवइया

समय  चक्र  घूमा  तो  गांडीवधारी बेचारे थे

 

भूनी मछली महाराज  की जल में कूद गयी थी

लकड़ी की खूंटी मोती की माला निगल गयी थी

चोरी  में  वे जेल गये जो चक्रवर्ती कल तक थे

सारी  आभा  समय  बदलते क्षण में चली गयी

 

समय की गद्दी पर विराज कर यूँ इठलाने वाले

समय  के  बूते  आज  मेरा उपहास उड़ाने वाले

मेरी  चौखट  आने  वाले  आज  बने  अनजाने

झुका के मस्तक फिर  आयेंगे आँख दिखाने वाले

 

पवन तिवारी

३०/११/२०२४        


शनिवार, 30 नवंबर 2024

जिस कंधे पर बैठ पिता के मेला घूमा करता था।

जिस कंधे पर बैठ पिता के मेला घूमा करता था।

उसी पिता को आज सदा को कंधा दे आया हूँ 

मल मल के नहलाने वाले अपने हाथ खिलाने वाले 

उसी पिता को सरयू तट पर दाह किये आया हूँ।


पिता प्रेत हो गये दिवस दस फिर से पितृ बनाया

बाहर से अब गये पिता ने अंदर गेह बनाया 

चंचलपन यूँ गया अचानक नहीं समझ कुछ पाया 

उम्र अचानक बढ़ी लगी मुझको गंभीर बनाया 



झुका झुका सा जब धीरे से आगे बढ़ता हूँ 

धोती कुरता पहन के जब सइकिल पर चढ़ता हूँ 

लगता है बाबू जी कहते जैसे जरा सम्हल के

बाहर से अब गये पिता को अंदर गुनता हूँ 



धोती कुरते  संग कंधे पर जभी अंगोंछा रखता हूँ 

बाबू जी के पहनावे का स्वाद अचानक चखता हूँ 

जैसे साथ - साथ फहराती धोती के संग चलते हैं 

मुझे अचानक भ्रम सा होता अगल बगल लखता हूँ।


धोती कुरते में अपने ए पिता सा लगता है।

बातचीत में साफ़गोई भी पिता सा कहता है 

जब से पिता देह को त्यागे अक्सर सुनता हूँ 

व्यक्त करूँ कैसे कि ए सब कैसा लगता है।


दो बच्चे मेरे भी थे पर पिता न बन पाया था 

उनके जाने पर पर अब मुझमें पिता भाव आया था ।

कंधे मेरे आज झुके हैं इस विचार के आते 

आज पिता को एक पिता फिर झुक कर गाया था ।


वर्षों बाद  मेरा  बेटा  कंधे पर आया है।

याद पुरानी हो आयी जब मेला आया है।

(बाऊ जी के द्वादश संस्कार के उपरांत पहले भाव की उपज)


23/11/2024



शनिवार, 9 नवंबर 2024

बात बात पर ( बाऊ जी के अस्वस्थ होने पर )



बात बात पर बैठे ही मैं कविता लिख देता था

हँसते – हँसते   दुर्लभ  प्रश्नों  के उत्तर देता था

वही  पवन  हूँ  आज  एक  ना  शब्द  फूटते हैं

बाऊ   के  संकेत  मात्र  से सब  कर  देता  था

 

हुआ समय  परिवर्तित  पूरा बुद्धू हो गया हूँ

मुझसे ही मैं विलग हुआ सा जैसे खो गया हूँ

बाऊ  जी मन में मुझको  सौ बार पुकारे होंगे

इसीलिये  परसों  से ही सौ बार मैं रो गया हूँ

 

शब्द साधना किया बहुत पर अर्थ कहीं रूठा है

इसी  एक  कारण  से  ही संबंध बहुत टूटा है

बहुत हुए अपमान आज तो मन अपमानित है

सम्बन्धों का शेष आज अंतिम घट भी फूटा है

 

आयेगा  फिर  काल  किंतु बाऊ जी ना होंगे

होगी  जय  जयकार किंतु  बाऊ जी ना होंगे

लौट के आयेंगे  भूले  सारे  शुभ चिंतक फिर

हम  चेहरे  पहचान के भी अनजान बने होंगे

 

धरा गोल है समय  लौट  के आयेगा इक दिन

फिर शब्दों का अर्चन  होगा आयेगा इक दिन

गायत्री   का   तेज   वेद  बन  फिर  से  फूटेगा

स्वागत हेतु अरुण रथ लेकर आयेगा इक दिन

 

पवन तिवारी

०९/११/२०२४

बाऊ जी को पीजीआई से स्वास्थ्य सेवा में असमर्थता जताने पर