यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019

अपने सपनों से


अपने  सपनों से लड़ रहा हूँ मैं
थोड़ा  - थोड़ा सा मर रहा हूँ मैं

संभालेंगे कि  जिनसे आशा थी
उनसे ही  अब संभल रहा हूँ मैं

दूसरों की खुशी की खातिर मैं
अपना होके भी कब रहा हूँ मैं

झूठ की बस्ती इतनी ज्यादा है
सच को लेकर भटक रहा हूँ मैं 

जब से  मेरा  उरूज  आया है
ज्यादा  अपनों को खल रहा हूँ

जीभ तो झूठ  दांत  सच चाहे
बोलते  ही अटक  रहा  हूँ मैं

छूटती  जाती  जिन्दगी  मुझसे
जितना इसको पकड़  रहा हूँ  मैं

गाँव से शहर  आया  जमने  को 
और  जड़  से  उखड़  रहा हूँ मैं

प्यार का जब  से लगा  है चस्का
जाने किस  किस से डर रहा हूँ मैं

जब से मुझको मिली मोहब्बत है
दोस्तों  को  अखर  रहा  हूँ  मैं

इश्क  जब  से  मिला तुम्हारा है
हल्का – हल्का  निखर  रहा हूँ मैं  

हार जाता हूँ मगर खुश फिर भी
अपने मन की जो कर रहा हूँ मैं

जब से सच बोल दिया महफिल में
अपनों  को  ही  खटक  रहा हूँ मैं  

ज़रा दुनिया क्या समझने निकला
और फिर दर - बदर  रहा  हूँ मैं

 गाँव  मासूम  सा जी बच्चा है
जमाने  तक  शहर रहा  हूँ मैं

आज कल रिश्ते सर के ऊपर हैं
कितनों की ही  डगर  रहा हूँ मैं

उन्हें भी  इश्क पवन  चखने दो
कुछ दिनों तक ग़ज़ल  रहा हूँ मैं


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८





सोमवार, 28 अक्टूबर 2019

नये मुक्तक प्यार के





प्यार उसका भी बौखलाया हुआ
प्यार जो पहली बार पाया हुआ
दिल की दुनिया अमीर ऐसे हुई
गैर भी प्यार करने आया हुआ

साथ तेरा जो मिल गया होता
मैं भी थोड़ा निखर गया होता
हम सफर मेरी गर बनी होती
मैं क्या जीवन संवर गया होता

तू जो मिलती तो मैं न ये होता
तेरी  बाँहों  में  सो  रहा होता
तेरा धोखा ही मेरी दौलत अब
इतना मशहूर मैं न कवि होता

प्यार से भूख मन की मिटती है
गेहूं से तन की भूख मिटती है
दोनों की अपनी हैसियत है मगर
अर्थ बिन जिन्दगी ही मिटती है  

तेरे अधरों की बात हो जाऊँ
तेरे धड़कन के पास हो जाऊँ
प्यार इतना लुटाऊं तुझपे कि
तेरे जीवन की आस हो जाऊँ

तू जो आयी तो हर खुशी आयी
ऐसा लगता कि हमनशीं आयी
जितने गम थे कि गल गये ही सभी
सूखे  होठों  पे भी हँसी आयी



जाते – जाते  हुए  मुस्कराते  रहे
दिल से दिल की वो घंटी बजाते रहे
अधरों से बात कोई हुई ना मगर
आखों आखों ही दिल में समाते रहे

दिल की गलियों में वे आते जाते रहे
कभी  हंसते  कभी  तो  रुलाते रहे
उनकी हर इक अदा कातिलाना रही
सब के द्वारे ही वे प्यार  पाते रहे 


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत


उसको जवाब


उसको जवाब भी बड़ा  करारा  मिला
अपने गले पे जब अपना आरा मिला

एक लहर ऐसी भी आई कि हुआ यूँ
जो डूब रहा था  उसे किनारा मिला 

वो हार की चौखट पे खड़ा होने वाला था
कि दोस्त आये जीत गया सहारा मिला

जब से हुआ है प्रेम  लोग कहने लगे हैं
अपने नगर को एक नया आवारा मिला


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत


कुछ ख़याल


आप भी सामने से देखने वाला नायाब धोखा खायें हैं
खंजर घोंपा है उसने आप समझते हैं सीने से लगाये हैं

ये रूतबा ओहदा शानो - शौकत और एक चीज पाये हैं
इस लोकतंत्र में ख़ाक छानी है और गालियाँ भी खाये हैं

आदमीयत की ढोल क्या पीटें खुद ही सुन लो ना
शहर  जल  रहा था  और  वे हँसते हुए आये हैं

प्यार में किस कदर किस मुकाम पर कहां लाये हैं
दूसरे के हो भी नहीं सकते कुछ इस कदर सताये हैं

सौ मरे पचास घर जले कुछ के बलात्कार हुये बाकी ठीक
और क्या कहूं उनके बारे में जो इस कदर सच बताये हैं

ये जो रुलाई में फ़क्त सिसकियाँ ही सिसकियाँ हैं
पवन  जज्बात  को  हम  इस  कदर  दबाए हैं

पवन तिवारी
सम्वाद – ७७१८०८०९७८ 

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

कर्ण कृष्ण संवाद


हे वासुदेव मेरे  हिस्से ही
इतने दुःख क्यों  आये हैं
अब तक केवल ताने–ताने
बस तिरस्कार ही पाये हैं

जन्मते ही माता ने  त्यागा
क्यों मेरा क्या अपराध रहा
क्षत्रिय कुल में ना पला तो मैं
क्या यह मेरा  अपराध रहा

गुरुद्रोण ने शिक्षा ना  कर दी
था शूद्र सो बस दुत्कार दिया
दी परशुराम  ने   शिक्षा पर
अंततः उन्होंने  शाप  दिया

मैंने  सेवा  मन  से   की थी
क्या यह भी था अपराध किया
कोई  बैर  नहीं था  कृष्णा से
फिर भी उसने अपमान  किया

मैंने तो जीवन  भर अपना
परहित में सब कुछ दान किया
फिर भी इस निष्ठुर जग ने तो
सदा  मेरा  अपमान किया

मैं जीवन  भर  दुत्कार   सहा
केवल  दुर्योधन  मुझे  गहा
मैं उसका  साथ  निभाऊंगा 
फिर इसमें क्या गलत कहा

हे कर्ण, जो बातें कहते हो
जिन हालातों में  रहते हो
उसका कुछ भान मुझे भी है
जितना कुछ भी तुम सहते हो  
 
पर मेरा  भी  जीवन  देखो
दुःख  का ही पूरा  लेखा है
६ बहनों के मर  जाने पर
मेरा जन्म हुुुआ भी धोखा है

कारागृह में मैं जन्म  लिया  
लेते ही जन्म मैं बिछड़ गया 
ना स्तनपान मिला  माँ का
जन्मा क्षत्रिय औ ग्वाल भया 

इक जन्मा कुल दूजे में पला 
मामा की आखों ही में गड़ा 
बैरी  बहु जन्म से मेरे थे
मुझको हर पग थी मौत घेरे

जब शिक्षा की उमर थी मेरी
गउवों संग बन–बन खेला था
गुरुकुल में जब सब लोग पढ़े 
गोबर माटी संग  खेला  था

मुझको मेरा प्रेम ना  मिला
बैरी  निकला अपना  साला
अपनी जननी से जीवन भर
था दूर रहा  उसका   लाला

मैंने  अपनों  की रक्षा में
एक नाम भगोड़ा था पाया
इतना सहने करने भी पर
सब दोष मेरे सर ही आया

तुमको तो शूर वीर जग में
अनुपम दानी है कहा गया
तुमको तो मन का प्रेम मिला
उत्कृष्ट मित्र है कहा गया

सबके अपने, अपने दुःख हैं
ये युद्ध है  होना  होगा  ही
जो  जैसा   वैसा  भोगेगा
जो होना  है  वो होगा  ही

अन्याय हुआ इसका मतलब
अन्याय के साथी हो जाओ
हे कर्ण धर्म की ध्वजा धरो
इतिहास बदलने आ  जाओ

हे केशव  सब  माना  मैंने
पर मेरा  निर्णय  स्थिर है
इतिहास  तुच्छ है मेरे लिए
मित्रता मेरी चिर थी चिर है

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत     

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2019

अच्छी नज़र से सीखे


अच्छी नज़र से सीखे तो मुकाम कमाओगे
बुरी  नज़र  से तो  बस  जुल्म कमाओगे

भाव की  रेखाएँ गर  पहचान गये तुम
तो जिन्दगी में ढेर सा करार कमाओगे

दूसरों की सुन के भी  खुद पर यकीन गर
अपने ही रास्ते से फिर इतिहास कमाओगे

वादा न  टूटा  वक़्त के पाबन्द रहे ग़र
मतलब के जमाने में विश्वास कमाओगे

क़िरदार लुटा कर क्या कोई ख़ाक बना है
अच्छा खयाल पैसे से किरदार  कमाओगे

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत  




शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

गाँव की व्यथा


खेती  करना  मरने  जैसा
गाँव नहीं अब  रहने जैसा
कहने को बहु लोग कहें हैं
नहीं रहा कुछ  करने जैसा

कुछ को  बातें  बुरी लगेंगी
कुछ को  थोड़ी सही लगेंगी
गाँव का वासी ही सच जाने
गाँव की  मेड़ें सड़ी  लगेंगी

जब देखो अकाल पड़ जाता
खेत आवारा पशु खा जाता
सरकारों  के   इंतज़ार  में
हरा खेत यूँ ही चर  जाता

सूखे से  घटती  आबादी
ओला से  भी हो  बर्बादी
बाढ़ में यदि अनुदान मिले भी
उसको भी खा जाये खादी

मजबूरी  का  नाम किसानी
कहने को भारत की निशानी
नये – नये तो नगर को भागे
गाँव में कैसे  कटे   जवानी

गाँव स्वर्ग थे नर्क  हो गये
अर्थ के कारण फर्क हो गये
खाली हाथ झुलाते कब तक
झूठे - मूठे  तर्क  हो  गये

बाग़ भी कटते-कटते कट गये
ताल भी पटते-पटते पट गये
अब  सूखे  का  रोना  रोते
जल के सारे स्रोत निपट गये

रिश्ते भी स्वारथ में बंट गये
अपने ही अपनों को चट गये
यहाँ  भी  पश्चिम आते  ही
भाई  भी भाई से  कट गये


मुश्किल   में   मजदूरी   है
जीना  भी   तो  जरुरी   है
इसीलिये  हैं  भाग रहे  सब
गाँव  से   बढ़ती   दूरी  है



पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत