बाबू
बाबू कहने वाले
वक़्त
पे गायब रहते हैं
गैरों
को समझाने वाले
खुद
ही आपा खोते हैं
जिन्हें
मंच पे गाते देखा
वे
जीवन में रोते हैं
कांटे
का स्वभाव सब जाने
फिर
क्यों काँटा बोते हैं
अपने
घर का काम न करते
ग़ैर
का बोझा ढोते हैं
मैल
जमी है अंदर में पर
चेहरा
मम मल धोते हैं
कुछ
बिन समझे बोलते रहते
जैसे
रट्टू तोते हैं
रात
बनी है सोने को पर
कुछ
जो दिन भर सोते हैं
पवन
तिवारी
१५/०६/२०२५
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