गुरुवार, 26 जून 2025

बाबू बाबू कहने वाले



बाबू बाबू कहने वाले

वक़्त पे गायब रहते हैं

गैरों को समझाने वाले

खुद ही आपा खोते हैं

 

जिन्हें मंच पे गाते देखा

वे जीवन में रोते हैं

कांटे का स्वभाव सब जाने

फिर क्यों काँटा बोते हैं

 

अपने घर का काम न करते

ग़ैर का बोझा ढोते हैं

मैल जमी है अंदर में पर

चेहरा मम मल धोते हैं

 

कुछ बिन समझे बोलते रहते

जैसे रट्टू तोते हैं

रात बनी है सोने को पर

कुछ जो दिन भर सोते हैं

 

पवन तिवारी

१५/०६/२०२५


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