मंगलवार, 31 मई 2022

घिर - घिर आये घन

घिर - घिर आये घन रह - रह नाचे मन

मन में उमंग  भरे  हौले हौले चले पवन

बिजुरी से चमके तन हिया डोले वन- ३

रोम – रोम  भीगे  महके  ज्यों  उपवन

 

कृषक हुआ है मगन चूड़ी खनके खन खन

रह  -  रह  कर  होती  वर्ष  बड़ी  सघन

घन भी बड़ा मगन लचक लचक जाये तन

सोंधी  गंध  उठे   खेत   करे  सन  -  सन  

 

भीगा भीगा प्रेम  सदन अंदर उठे अगन

बूंद  पड़े  ज्यों - ज्यों  सजने  लगें सपन

हर्षित  हुआ मदन धड़कन  सनन सनन

बरस - बरस बोले घन ये घनन - घनन

 

पवन तिवारी

१७/०७/२०२१

 

राह छोटी है पतन की

राह छोटी है  पतन की  ज़िंदगी  तो है जतन की

बातें इतनी हैं हो रही लाज मुश्किल है कथन की

 

खोज है सबको रतन की चाह है सबको गगन की

सबको अपनी ही पड़ी है  राह सब देखें ठगन की

 

मिट रही गरिमा सदन की चर्चा धूमिल है गबन की

सब  प्रपंचों में लगे हैं  धुन है  सत्ता  के  चखन  की

 

भूमिका इसमें बदन की ख़ूब चलती है मदन की

स्वार्थ हावी है इस तरह साख़ ख़तरे में वतन की

 

नहीं  मर्यादा  वचन  की  शील  टूटी है  बटन की

अब है नैतिकता किताबी कौन सुनता है पवन की

 

पवन तिवारी

१६/०७/२०२१

आज सिमटता जाता

आज सिमटता  जाता  ज़िन्दगी का डेरा है

जिस सड़क से बचते थे अब वहीँ बसेरा है

 

कुछ अंधेरों को हमने खुद ही पाल रखा है

सोच में  उजाला  रख  हर तरफ सवेरा है

 

सारी  बेईमानी  की  माया छूट  जायेगी

ये  फरेब  जीवन  का  तेरा  मेरा फेरा है

 

कल किसी हक़ इसका मिल जायेगा देखना

हाय – हाय  करके ये तुमने जितना घेरा है

 

तुझसे पहले कईयों ने तेरा  मेरा खेला था

तेरा  भी  ये  ना होगा आज ये जो तेरा है

 

पवन तिवारी

१५/०७/२०२१   

एक प्रतिभा बस

एक  प्रतिभा  बस निरर्थक जा रही है

हाँ, घिसटती आगे भरसक जा रही है

वह  अनादर  झेलकर  पायेगी  आदर

जानती है वह सो अब तक जा रही है

 

जानता है, समय  उसका   रहा है

सो अंधेरों से  वो  लड़ता  जा  रहा है

भीड़ अंतिम दृश्य की ख़ातिर खड़ी है

इस कुटिलता से भी ना घबरा रहा है

 

स्वयं पर विश्वास  इतना कब रहा है

बैसवारे  का   निराला  जब  रहा है

सूर्य था वो आ  रहा है फिर उजाला

गज़ब है  संघर्ष  उस पर फब रहा है

 

स्वार्थी जग  उदित  को  पूजा सदा है

घृणित जग की आदि से ही ये अदा है

भोर का  आभास  प्रतिभा  दे  रही है

प्रतिभा के हीरों से उसका रथ लदा है

 

पवन तिवारी

१४/०७/२०२१    

सोमवार, 30 मई 2022

जहाँ तुम्हें कीचड़ दिखता है

जहाँ तुम्हें कीचड़ दिखता है वहाँ हम धान उगाते हैं

जहाँ  तुम्हें  ढेला दिखता है वहाँ हम मान उगाते है

हो  डरते  धूल  से  जिस  तुम  उसे  माथे लगाते हैं

है  उसमें गाँव  की  ख़ुशबू  हम  उसके संग गाते हैं

 

तुम्हें  निर्जन  लगें  जो  खेत उसमें जान बसती है

बड़ा  आनंद  आता  है  जो  सोंधी  गंध  उठती है

फसल जब  लहलहाती है कभी मेंड़ों से देखो तुम

इन्हें है  देखना तो नगर  के  चश्में को फेंको तुम

 

तुम्हें  सचाई  अल्हड़ता  दिखेगी   संस्कृति  अपनी

कि भारत गाँव में बसता इसी में पुण्य गति अपनी

जरा ठहरो यहाँ कुछ दिन यहाँ की शाम को सुनना

यहाँ  की  सादगी  देखो  थोड़ी  मासूमियत चुनना

 

नगर जाने  से  पहले  थोड़ा  लेना  आदमीयत तुम

गाँव को एक दिन हँसकर करोगे सब वसीयत तुम

अभी  तुम पर चढ़ी है धुन नगर की जान पाये तो

नगर जाना  कभी  भी ना सदा दोगे नसीहत तुम   

 

पवन तिवारी  

१२/०८/२०२१

 

 

 

मैंने तुमसे यार किया है

मैंने  तुमसे  यार   किया  है

बोलो ना कि प्यार किया है

लड़के पहले करते हैं पर

पर मैंने इज़हार किया है

 

इस साहस का मोल चुकाओ

आओ  आओ  प्यार  जताओ

तुमने भी  तो  स्वीकारा है

खुल करके ना सबको बताओ

 

इस पर भी जरा लब को खोलो

जब तुम पर दिल भड़का बोलो

तुमने पहले जब ना की थी

दिल बोल था इनके हो लो

 

कर ही लिया फिर क्या डरना है

अब जीवन बहता झरना है

हमको इक दूजे पर मरना

सबको तो मरना इक दिन है

 

पवन तिवारी

११/०७/२०२१    

प्रेम का नभ

प्रेम  का  नभ  नभ से विस्तृत  है

ये  सुधा  से  बढ़   कर  अमृत  है 

आज – कल    बहुरूपिये    आते

प्रेम   से   तो   स्वर्ग   झंकृत   है

 

प्रेम  से   ही   प्रकृति    पूरित  है

प्रेम की इच्छा न त्वरित चरित है

प्रेम दिख जाएगा  देखो ध्यान से

जिन्दगी   में   जितना   हरित है

 

प्रेम   से    ही    हर्ष   प्रेरित  है

प्रभु  का  भी  ये  मूल चरित है

प्रेम  से   वंचित  रहा   जो भी

थोड़ा सा  ही  किन्तु  क्षरित है

 

प्रेम  बिन  प्रति व्यक्ति झरित है

कंटकों    सा    वृक्ष   फरित  है

प्रेम  जब  तक   ज़िंदगी  में  है

उसका जीवन स्वच्छ सरित है

 

पवन तिवारी

१०/०७/२०२१

 

 

तुम लोगों को नहीं

तुम  लोगों  को  नहीं  तुम्हारा  नैन  तोलता  है

तुमसे अधिक तुम्हारा  अक्सर  मौन बोलता  है

काया की क्या करूँ प्रशंसा अद्भुतत है व्यक्तित्त्व

यूँ ही नहीं देख कर  तुमको  मन  ये  डोलता  है

 

स्वप्न भी तुमसे स्वप्न में आकर क्रीड़ा करता है

किन्तु  सम्भल करता थोड़ा - थोड़ा  डरता है

मिलता हूँ मैं स्वप्न में फिर भी दिन बन जाता है

वहाँ भी मर्यादा रखती हो नेह भी झरता है

 

ऐसा  साथी  मिलने  पर  ही  जीवन  बनता  है

कैसा  भी  संकट   आये  मन, मन  से  तनता है

ऐसे में यदि प्रेम मिले तो,दुर्गम  भी असान लगे

दुःख  आये  तो  ख़ुशी  ख़ुशी भी उससे ठनता है

 

पवन तिवारी

०९/०७/२०२१    

बाद वर्षों के कल

बाद  वर्षों  के  कल  मैंने  देखा  तुम्हें

मंच  से  ही  जरा  सा   परेखा  तुम्हें

मेरी कविता पे जब  तालियाँ गूँजती

थी रही  कोस मस्तक की रेखा तुम्हें

 

इतने दिन बाद जो दृष्टि  ने देखा कल

मंच से ही कहा हिय ने चल पास चल

मेरी कविता पे तब ही बजी तालियाँ

तुम्हरे आनन  पे उभरे  हुए स्वेद जल

 

तुम्हरे साथी के चेहरे पे मुस्कान थी

मेरी  कविता  भी छेड़े हुए तान थी

सारे श्रोताओं का मुझपे अनुराग था

एक  केवल  तुम्हीं  बस परेशान थी

 

प्रेम  को  छोड़कर  अर्थ  तुमने  चुना

छल का बारीक़ का जाल तुमने बुना

देख  तुमको  परेशां  है दुःख हो रहा

काश मेरी तरह होती दिल का सुना

 

पवन तिवारी

०७/०७/२०२१

सोचते - सोचते दिन

सोचते  -  सोचते   दिन   गुजरते   गये

उम्र   के   साथ   अरमान   बढ़ते   गये

दिन-ब-दिन तेजी  से  उम्र  ढलने लगी

हौंसले  थे  जवाँ  हम  सो   चढ़ते  गये

 

रोज दुःख  आते  थे  हमको  हड़काते थे

रोग  भी  लक्ष्य  से  हमको  भटकाते थे

फिर भी हँस देते थे हम भी फीका सही

इस तरह अपने  सपनों को भड़काते थे

 

लेके  आशीष  फिर  जोश से चलते थे

जो  बुरे काल  थे  हाथ  ही  मलते थे

मरने से पहले कुछ रचने का हठ लिए

वैरी जलते थे  हम  दीप सा जलते थे

 

कितनी हारों को ले करके हिय जीता है

घाव  काया  पे  है  किन्तु  उर गीता है

जो भी इस मंत्र को  सिद्ध कर ले गया

अंत  जीवन  का  अमृत  वही पीता है   

 

पवन तिवारी

०८/०७/२०२१