यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

सोमवार, 10 जनवरी 2022

मैं पवन तिवारी ही बनूँगा





आज से ठीक सौ साल पहले

निराला को

जो ताने मारे गये थे

कहे गये थे जो,

 उपहासात्मक  शब्द !

जिन भंगिमाओं से

किया गया अपमानित, वह सब!

आज-कल  प्रत्यक्ष देख और

सुन रहा हूँ .

अपनों और अपने

कहलाने वालों  का

अमानवीय दंश

महसूस कर रहा हूँ.

मुक्तिबोध की बीड़ी से

उठते हुए धुएं पर

गलीय व्यंग्य और

उनकी प्रतिभा की

हँसी उड़ाती सुंदर

किन्तु असभ्य आवाज़ें

मेरे कान साफ़ – साफ़

आज भी सुन रहे हैं क्योंकि,

मैंने जान लिया है

मैं क्यों हूँ ? और

मुझे क्या करना है ?

लोग भी शायद जान गये हैं!

तभी मेरे कानों ने सुना-

निराला और मुक्तिबोध

बनने चले हैं .

कोई काम क्यों नहीं करते ?

मेरा काम कोई काम नहीं ??

इसी ने हत्या की – निराला, प्रेमचन्द  और

मुक्तिबोध आदि की! किन्तु

मैं 'पवन तिवारी' ही बनूँगा!

आश्वस्त करता हूँ .

 

 

पवन तिवारी

संवाद- ७७१८०८०९७८

१८/०२/२०२१


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