सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

अपने सिद्धांत, ठसक सर पे लिए चलते हैं,



अपने सिद्धांत, ठसक

सर पे लिए चलते हैं,

और इस ज़िन्दगी में

रोज थोड़ा मरते हैं.

 

रोज़ हँसते हैं मुस्करा के

गले मिलते हैं,

और अंदर के घाव

रोज थोड़ा सिलते हैं.

 

आज दीवाली पे

मेरे घर में अंधेरा है भले,

मेरे अंदर कई चराग

कब से जलते हैं.

 

एक तन्हाई ये जो

रोज़ डाँटती है मुझे,

कितने लेखक इसी पे

मरते, मरते, मरते हैं.

 

यूँ ही घंटों से अकेले में

जो हूँ सोच रहा,

लोग सरेआम उसपे

रोज बात करते हैं.

 

मैंने अब तक जो जिया

वो क़िताब उम्दा है,

इसीलिये इ
से पढ़ने से

लोग डरते हैं.

 

मरोगे जब तुम्हारी

ज़िन्दगी बिकेगी बहुत,

पवन कोई जीवनी

कोई आत्मकथा कहते हैं.

 

पवन तिवारी

२८/१०/२०२४

(गोवत्स द्वादशी)    

 

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