सोमवार, 24 अक्टूबर 2022

उदासियों ने घेर रक्खा है

उदासियों    ने    घेर   रक्खा   है

हमने भी खूब दुःख को चक्खा है

कोई  दिखता  नहीं है दूर तलक

दर्द अपने  भी  सर पे अक्खा है

 

रात  कुछ  नींद  काट  देती है

दिन की  सौगात  जान लेती है

शाम  सुई  सी  चुभोती  जैसे

ज़िन्दगी  बारिशों  की खेती है

 

आज-कल रोज खुद से घिरता हूँ

खुद  से ही मारा-मारा फिरता हूँ

इतना उलझा हूँ खुद में क्या ही कहूँ

धीरे चलता हूँ फिर भी गिरता हूँ

 

यही समय  है  संभलना इससे

सब पराये  हैं  तो कहें किससे

धीर रखना है वक़्त फिरने तक

सुनेंगे  सब  ही  कहेंगे जिससे

 

पवन तिवारी

०८/१०/२०२२    

1 टिप्पणी:

  1. अपनी व्यथा खुद से कहती हुई मार्मिक अभिव्यक्ति प्रिय पवन जी।👌👌👌

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