बुधवार, 31 अगस्त 2022

डाही व्यक्ति की छाया से भी

डाही  व्यक्ति  की  छाया से भी

बचकर  रहने  में  ही   हित  है

उनसे  तर्क   बहस  ना  करिए

कलुषित उनका तन व चित है

 

प्रतिभा से  कई  बार  अकारण

जलने   वाले    रहते    जलते

विष  से  भरे  लोग  जीवन में

निज विष से ही सहज हैं  गलते

 

गुणी   जनों    के    बारे   में

अक्सर  प्रवाद   फैलाते   हैं

प्रतिश्रुत होकर बड़े लगन से

निज  को  हानि  पहुँचाते हैं

 

निज  को  एक  निरंतर औषधि

करो परिष्कृत निज प्रतिभा को

बिन  प्रयास  के  ही  जग देखे

अद्भुत तुम्हरी इस आभा को

 

इतने ऊँचे उठो  कि सर पर

कोई   पंक     फेंक   सके

यदि कोई  दुस्साहस कर दे

उसको  ही   आन  लगे

 

पवन तिवारी

२९/०८/२०२२  

शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

कुसुमित वय में हो जाता है



कुसुमित  वय में हो जाता है

अभिरूप  देख  खो जाता है

मेरी  भी  दशा  सहज वैसी

मन उसी नगर को जाता है

 

तुम प्रतिभा में लोकोत्तर हो

तुम प्रति प्रश्नों का उत्तर हो

मैं साथ तुम्हारा पा न सका

इसलिए कहूँ तुम पत्थर हो

 

यह  कथा  कोई  रामायण ना

मैं   हूँ   कोई    नारायण  ना

अन्तः खीझा दुःख भी था पर

इतना भी  स्वार्थपरायण  ना

 

अब   देखा   वर्षों  बाद तुम्हें

संतानों   संग   आबाद  तुम्हें

मेरी  भी  दुनिया  कुछ ऐसी

दिल कहे  मुबारकबाद तुम्हें

 

ये   शोक   प्रेम  की  स्मृतियाँ

उर में भटकें कितनी  बतियाँ

इनसे  ही  जीवन  है अद्भुत

जीवन की हैं कितनी जतियाँ

 

पवन तिवारी

२५/०८/२०२२

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

इस तुमुल भरे जग जीवन में



इस  तुमुल  भरे  जग  जीवन में

मन तृषित शांति को भटक रहा

सीधे - सच्चों  का   मुख  धूमिल

कलुषों का मुख अधि चटक रहा

 

चहक  रहे  वे  लंद - फंद जो

सीधों का  कार्य ही अटका है

जो अन्यों का  भी हित चाहें

उनको पग-पग पर झटका है

 

बाधा जनहित   के कारज में

वर्षो – वर्षों   से   लटका  है

जो  ग़ैर  ज़रूरी   है   अवैध

वह जोर–शोर  से चटका है

 

इस काल में भी हँसकर जीना

समझो  कलयुग  को पटका है

चलते  रहना  नैतिक पथ पर

दुष्टों  के   ख़ातिर   खटका  है

 

माना कई बार  हुए विचलित

कई बार डिगा  मन भटका है

पर अंत समय सत के पथ पर

जल  प्रेम  सत्य का  गटका है

 

पवन तिवारी

19/08/2022

सोमवार, 15 अगस्त 2022

मैं आमुख हूँ तुम कथा प्रिये



मैं  आमुख  हूँ  तुम  कथा  प्रिये

तुम  ही  वांछित  सर्वथा  प्रिये

मुझको तथापि तुम ना समझी

यही मूल  है  मेरी व्यथा प्रिये

 

मेरे   जीवन   की   त्राता   हो

तुम   प्रेम  हर्ष  की  दाता  हो

जीवन भर सुख दुःख के साथी

ऐसे  निर्मित निज  नाता  हो

 

है जग से बहुत मिला शोषण

तुमसे मिल जाय  पृष्ठ पोषण

पुनि सभी निरादर सह लूँगा

हिय को मिल जाएगा तोषण

 

मैं  कौतुक  ना  करना  चाहूँ

यौतुक  भी  कोई  ना  चाहूँ

बस एक मनोरथ केवल तुम

जीयूँ  संग  में  मरना  चाहूँ

 

पवन तिवारी

१४/०८/२०२२  

बुधवार, 10 अगस्त 2022

नयनों के मेरे निकेतन में



नयनों  के  मेरे  निकेतन  में

अन्तःपुर   के   अवचेतन  में

तुम प्रहर घड़ी प्रति-प्रति क्षण में

तुम रोम रोम में मन तन में

 

यह लगन  नहीं  साधारण है

इसका बड़ा महती कारण है

अनुरक्ति  कई जन्मों की यह

यह   प्रारब्धों  से  धारण  है

 

मुख   देखे   तुमसे  भी  सुंदर

पर बसती हो  तुम  ही  अंदर

तुम्हरा विचार दुःख हर लेता

जैसे   हूँ    देख  लिया  कुंदर

 

अर्चन  जैसी   अभिलाषा  हो

पहली तुम्हीं अंतिम आशा हो

तुम्हें   देख  हूँ  उत्सुक  होता

केवल  तुम  ही  जिज्ञासा  हो

 

इससे ऊँचा  ना  भाव  शिखर

जाऊँगा  तुम्हरे  बिना  बिखर

तुम्हरा मिलना अद्भुत होगा

मैं  जाऊँगा  प्रति  पोर निखर  

 

पवन तिवारी

९/०८/२०२२

रविवार, 7 अगस्त 2022

वह निर्निमेष सा अवलोकन



वह निर्निमेष सा  अवलोकन

तुम पर ही गड़ा रहा लोचन

अन्तरतम की धुक धुकी बढ़ी

अनुपम स्वरूप  ऐसा शोधन

 

अब रूप नहीं  भरमा  पाते

जैसे   मुझसे   हैं   शरमाते

तुम्हरा स्वरुप है बसा हुआ

सब तुच्छ से  हैं  आते जाते

 

तुम काया से कहीं हो बढ़कर

सारी   विद्याएँ   हो  पढ़कर

दारा   स्वरुप   में  देवी  सी

तुम रूप शिखा पर हो चढ़कर

 

जब से तुम  से  संवाद  हुआ

लागे ज्यों  अनहद नाद हुआ

जो कुछ अकथ्य अव्यक्त रहा

उन सबका भी अनुवाद हुआ

 

आधा जीवन   छल घोंट गया

जैसे था  सब  कुछ  ओट गया

तुमने  सब  खेद  मिटा डाला

तुम पर आहत मन लोट गया

 

पवन तिवारी

०७/०८/२०२२     

 

 

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

वह दृश्य बड़ा आकर्षक था

वह  दृश्य   बड़ा   आकर्षक  था

तुम छवि गृह छवि मैं दर्शक था

तुम्हें  देखा   भेंट  हुई    सही

मेरा  प्रयास   तो   भरसक  था

 

वह  पहला  भाव  सुरक्षित  है

तुम्हरे ही   लिए  आरक्षित  है

हिय  का मध्यस्थल तब से ही

तुम्हरे  ही  लिए   संरक्षित  है

 

तुम  मेरे   पक्ष  से  परिचि  हो

या पूरी  तरह  अपरिचित  हो

जग  के  लिए हो सकती सुंदर

मेरे  लिए  तुम रति अर्चित हो

 

यह  भाव   अस्थिर  नहीं अचर

कैसी   स्थिति   परिवेश   लचर

है  प्रथम  यही, यही  अंतिम  है

साक्षी हों नभ चर,जल,थल चर

 

पवन तिवारी

०३/०८/२०२२