चवन्नी का मेला

यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

शनिवार, 30 अगस्त 2025

घबराने से विचलन होगी



घबराने से विचलन होगी

निज पथ से भी भटकन होगी

 

जिन दुःख ने हैं साहस तोड़े

आओ उनकी बाँह मरोड़ें

दुःख कितना भी दाब बनाये

धमकी का वह मज़ा चखाए

तुम केवल बस हँस भर देना

उतने से उसे सिरहन होगी

 

ऐसे वैसे लोग मिलेंगे

स्वारथ वाले रोग मिलेंगे

अपनी रीढ़ को सीधी रखना

झुककर मत स्वारथ को चखना

बस आनन कठोर कर लेना

इतने से उसे अड़चन होगी

 

कलियुग में हर जगह कालिमा

बचकर रहना तुम हो लालिमा

तुम्हें मिटाने जतन करेगी

जब तक तुम हो सदा डरेगी

बस तुम समुचित दूरी रखना

इतने से उसे तड़पन होगी

 

सारा जगत तुम्हें देखेगा

तुम्हरे साहस से सीखेगा

अक्षर-2 तुम सच रचना

नीचे निज हस्ताक्षर करना

काल भाल पर अंकित होगे

देख तुम्हें उसे ठिठुरन होगी

 

घबराने से विचलन होगी

निज पथ से भी भटकन होगी

 

पवन तिवारी

३०/०८/२०२५  


शनिवार, 23 अगस्त 2025

उर सरिता सा कल कल बहता



अपने हिय का हाल कहूँ क्या

जो अक्सर धक धक करता था

उस हिय का स्वर बदल गया है

उर सरिता सा कल कल बहता

प्रेम की भाषा सा कुछ कहता

उर सरिता सा कल कल बहता

 

यह परिवर्तन सहज नहीं है

जब से उन्हें घाट पर देखा

तब से यह मन बदल गया है

अब तो हँसकर सब है सहता

उर सरिता सा कल कल बहता

 

रुखा - सूखा सा जीवन था

अक्सर धूल उड़ा करती थी

जैसे सब कुछ बदल गया है

अब ठोकर भी हँसकर सहता  

उर सरिता सा कल कल बहता

 

लोग पूछते क्या खाते हो

चमक आ गयी है चेहरे पर

भाव ही सारा बदल गया है

कैसे कहूँ प्रेम में रहता

उर सरिता सा कल कल बहता

 

उनको कुछ भी पता नहीं है

इधर हर्ष का मौसम आया

कितना पावन प्रेम है होता

कैसे जीवन बदल गया है

सारा कलुष सतत है ढहता  

उर सरिता सा कल कल बहता

 

पवन तिवारी

२३/०८/२०२५   

 


बुधवार, 16 जुलाई 2025

सभी मेरे प्रश्नों के तुम ही थे हल



सभी  मेरे   प्रश्नों   के  तुम  ही  थे हल

तुममें ही अपना मुझे दिखता था कल

परिचित तो बहुत  एक अपने थे तुम

अपने ही  ने अपने से कर डाला छल

क्या  कहूँ सूख   गया जीवन का जल

 

एक ही क्षण में उसने बदला था दल

आघात के जैसा था एक - एक पल

छीना   भरोसे    ने   भरोसा    सारा   

गुम  हो  गया   जैसे   ही सारा  बल

क्या कहूँ सूख गया जीवन का जल

 

उसके ही सांचे   में  गया था मैं ढल

हिम होके उसकी ख़ातिर था गया मैं गल

फिर भी नहीं निभाया उसने था साथ

वैरी से मिलकर दिया था ऐसा फल

क्या कहूँ सूख गया जीवन का जल

 

मित्र  जिसे माना था निकला वो खल

आकाश  समझा  था  निकला सुतल

जीवन से शुभदा  का शब्द गया टल

मन कहता इस जग से चल जल्दी चल

क्या कहूँ सूख  गया  जीवन का जल

 

पवन तिवारी

१६/०७/२०२५

 

 

 


गुरुवार, 26 जून 2025

गौण सा पात्र हूँ मैं



गौण सा पात्र  हूँ  मैं,  उपन्यास है

एक  रेखा हूँ लक्षण हूँ बस,व्यास है

किंतु व्यक्तित्त्व इनसे भी मिलकर बने

डूबते को तो  तिनकों से भी आस है

 

सारे  संबंध  का  मूल  विश्वास  है

टूट जाता तो  बस त्रास  ही त्रास है

जो निभे   निभाये  नहीं जा सके

उनके जीवन में पछतावा बस काश है

 

जिनमें आशा है उनका तो आकाश है

उनके साहस के आगे  समय दास है

कोई  सामान्य, मामूली कैसा भी हो

जिसको छू देंगे ये बस  वही ख़ास है

 

है न ज़िन्दादिली  ज़िन्दगी लाश है

जैसे  पैरों  के  नीचे  दबी घास है

किंतु जिनमें  भरा प्रेम जीवन से है

उनके जीवन में बस हर्ष का राज है

 

पवन तिवारी

२६/०६/२०२५  


बाबू बाबू कहने वाले



बाबू बाबू कहने वाले

वक़्त पे गायब रहते हैं

गैरों को समझाने वाले

खुद ही आपा खोते हैं

 

जिन्हें मंच पे गाते देखा

वे जीवन में रोते हैं

कांटे का स्वभाव सब जाने

फिर क्यों काँटा बोते हैं

 

अपने घर का काम न करते

ग़ैर का बोझा ढोते हैं

मैल जमी है अंदर में पर

चेहरा मम मल धोते हैं

 

कुछ बिन समझे बोलते रहते

जैसे रट्टू तोते हैं

रात बनी है सोने को पर

कुछ जो दिन भर सोते हैं

 

पवन तिवारी

१५/०६/२०२५


जिन दिनों



जिन दिनों,

ज़िन्दगी जी रहा! था

सब कुछ

अच्छा लग रहा था!

जब से ज़िन्दगी

कटने लगी है,

ज़िन्दगी से

ऊब हो गयी है!

यह ऊब तो

बिलकुल कटती नहीं है!

इसे काटने के लिए

अक्सर सो जाता हूँ, और

शाम को उठाता हूँ! और

फिर शाम नहीं कटती!

और तो और

रात तो एकदम

हरजाई जैसी है!

कटने को कौन कहे

ये काटती है!

जब रात ही काटने लगे,

फिर ज़िन्दगी कैसे कटे ?

ज़िन्दगी को जीने से

जितना सुख है,

उसको काटना

उतना ही बड़ा दुःख!

 

पवन तिवारी

 ११/०६/२०२५


रविवार, 8 जून 2025

सबसे मीठा रस बातों का



सबसे   मीठा  रस  बातों का

सबसे पावन जल आखों का

चंदा  दिख  जाता दिन में भी

पर  मन  को  भाता रातों का

 

हिय  ही  काया का केंद्र बिंदु

इसमें  ही  बसता  प्रेम सिन्धु

इन सबको जो पूरित करता

औषधि अधिपति वह मात्र इंदु

 

हैं सबसे  बड़े जनक अचरज

सबसे  पावन है प्रभु की रज

पर   पीड़ा  ही  है  पाप  बड़ा

पावन है  सबसे मस्तक गज

 

जग में जो  भी  हैं  सब विशेष

वह भी  विशेष  जो दिखे शेष

है शेष   ने   ही   धरती   धारी

जय जय रमेश जय जय महेश

 

पवन तिवारी

०८/०६/२०२५     

 

 


सोमवार, 12 मई 2025

हद से ज्यादा जब अशांति बढ़ जाती है



हद से ज्यादा जब अशांति बढ़ जाती है

बिना युद्ध के शांति नहीं तब आती है

शान्ति सभी मोती माणिक से महँगी है

कितनों का  जीवन  वैभव खा जाती है

 

किसकी भी हो विजय पराजय हो किसकी

कम ज्यादा पर हानि सभी की होती है

पिता पुत्र को पत्नी पति को मांयें संतति खोती हैं

जिनके अपने घर उजड़े हैं उनकी क्या गति होती है

 

इसीलिये अशांति से पहले संवादों से हल कर लें

नहीं सुझाई हल देता तो समझौतों का मन कर लें

वरना अंत मलाल तो होगा  हारेंगे  या जीतेंगे

थोड़ी तेरी थोड़ी मेरी मिलकर कुछ ऐसा कर लें   

 

वरना युद्ध तो बलि लेता है, रक्त को जल सा पीता है

धर्म ध्यान तब काम न आता युद्ध स्वयं तब गीता है

जब तक शांति तभी तक सीता जनक नंदिनी है

युद्ध हुआ तो सीता ना तब काली सीता है

 

पवन तिवारी

१२ /०५/२५


शनिवार, 3 मई 2025

जीवन की आपा-धापी में


 

जीवन की आपा-धापी में

संबंधों का रेला है,

अपनी स्थिति ऐसे जैसे

खेत में बिखरा ढेला है.

भीड़ बहुत है आसपास में

पर ये जिया अकेला है,

अपनी स्थिति ऐसे जैसे

खेत में बिखरा ढेला है.

 

खेल रहा है हमसे जीवन

या जीवन ही खेला है,

कई बार बोझे सा लगता

खिंचता जैसे ठेला है.

हर कोई चढ़ा गुरू सा रहता

यहाँ न कोई चेला है,

अपनी स्थिति ऐसे जैसे

खेत में बिखरा ढेला है.

 

बिन मतलब के बात है महँगी

कोई न देता धेला है,

बाबू, भइया, मित्र व मइया

सब मतलब का मेला है,

साँच कहूँ मैं जलता दीपक

गदाबेर की बेला है.

अपनी स्थिति ऐसे जैसे

खेत में बिखरा ढेला है.

 

पवन तिवारी

 २५/०५/२०२५  

( आज अस्पताल से लौटते समय उपजी रचना, आज अम्मा को अस्पताल में भर्ती होकर १७ दिन हो 

बुधवार, 9 अप्रैल 2025

जीवन निशदिन छूट रहा है



जीवन निशदिन छूट रहा है

जैसे   मुझसे   रूठ  रहा  है

क्या बतलाऊं समझ न आता

अंदर ज्यों  कुछ टूट रहा है

जीवन निशदिन छूट रहा है

 

तेरा   मेरा   सब    करते   हैं

अपना  अपना  सब भरते हैं

अवसर पाते  ही सब के सब

औरों  पर   बोझा   धरते  हैं.

सब कोई सब को कूट रहा है

जीवन निश-दिन छूट रहा है

 

कोई   कोई  मुस्काते  हैं

कोई  -  कोई   ही  गाते हैं

ज्यादा   रोने   जैसे   चेहरे

उदासियाँ  भर  भर खाते हैं

बहुमत में अब  झूठ रहा है

जीवन निशदिन छूट रहा है

 

फिर भी जग बहता सा दरिया

सुख दुःख ही जीवन का जरिया

भूखे   पेट   भी  हंसने  वाले

देखो  जैसे   अपना   हरिया

जग  ही  जग  हो लूट रहा है

जीवन  निश-दिन  छूट रहा है

 

बड़ी  मीन  छोटी  को  खाती

खाकर  शान्ति गी त है गाती

ऐसे  ही  स्वभाव की  दुनिया

निर्बल  पर  बल  अजमाती है

जहाँ   जो   पाये  लूट  रहा  है    

जीवन  निश-दिन  छूट रहा है

 

पवन तिवारी

०९/०४/२०२५


संवाद : ७७१८०८०९७८