शनिवार, 9 नवंबर 2024

बात बात पर ( बाऊ जी के अस्वस्थ होने पर )



बात बात पर बैठे ही मैं कविता लिख देता था

हँसते – हँसते   दुर्लभ  प्रश्नों  के उत्तर देता था

वही  पवन  हूँ  आज  एक  ना  शब्द  फूटते हैं

बाऊ   के  संकेत  मात्र  से सब  कर  देता  था

 

हुआ समय  परिवर्तित  पूरा बुद्धू हो गया हूँ

मुझसे ही मैं विलग हुआ सा जैसे खो गया हूँ

बाऊ  जी मन में मुझको  सौ बार पुकारे होंगे

इसीलिये  परसों  से ही सौ बार मैं रो गया हूँ

 

शब्द साधना किया बहुत पर अर्थ कहीं रूठा है

इसी  एक  कारण  से  ही संबंध बहुत टूटा है

बहुत हुए अपमान आज तो मन अपमानित है

सम्बन्धों का शेष आज अंतिम घट भी फूटा है

 

आयेगा  फिर  काल  किंतु बाऊ जी ना होंगे

होगी  जय  जयकार किंतु  बाऊ जी ना होंगे

लौट के आयेंगे  भूले  सारे  शुभ चिंतक फिर

हम  चेहरे  पहचान के भी अनजान बने होंगे

 

धरा गोल है समय  लौट  के आयेगा इक दिन

फिर शब्दों का अर्चन  होगा आयेगा इक दिन

गायत्री   का   तेज   वेद  बन  फिर  से  फूटेगा

स्वागत हेतु अरुण रथ लेकर आयेगा इक दिन

 

पवन तिवारी

०९/११/२०२४

बाऊ जी को पीजीआई से स्वास्थ्य सेवा में असमर्थता जताने पर   


शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

प्रारब्ध


 

बचपन में  जो  पूर्व जन्म की कथा बताते थे

पूर्व जन्म  के  कर्मों  का  परिणाम बताते थे

जो विपत्ति दुःख, छल जितना भी झेल रहे थे वो

प्रारब्धों  का  किया धरा सब काम बताते थे

 

सुनते रहते थे हम अक्सर  समझ  नहीं पाते थे

जिज्ञासा  होती  थी  लेकिन प्रश्न न कर पाते थे

उनकी बातें सुनते, उनका  मुँह  देखा करते थे  

अपनी व्यथा कथा कहकर वह दुःख में सुख पाते थे

 

जब अपने संग हुए  छलों का उत्तर ना पाते थे

कष्ट की अवली लगी सदा वे दुःख पे दुःख पाते थे

आकुल मन जब गला दबाता छाती जलने लगती

एक  सहारा  केवल  तब  प्रारब्धों  पर  पाते थे

 

 आज समय के उसी काल में जब हम उलझे हैं

सुलझे - सुलझे  लगे  प्रश्न  पर  बहुधा  उलझे  हैं

तब जाकर प्रारब्ध शास्त्र का महत समझ आया

हम भी उसकी शरण गये अब जब जब उलझे हैं

 

विफलताओं   में  जीने  का  आधार  यही देता

दुःख को  सहने का  शसक्त आधार यही देता

पिछले जन्मों के हिसाब कुछ बाक़ी रह गये थे

यूँ   बहलाकर  जीने  का   आधार   यही   देता

 

पवन तिवारी

०६/११/२०२४    


सोमवार, 4 नवंबर 2024

जहाँ भी जिंदगी मिले उसे उठाते चलो



जहाँ  भी जिंदगी मिले उसे  उठाते चलो

स्नेहा उल्लास मिले लोगों में बढ़ाते चलो 

सुखों की आड़ में छुप के बहुत से दुख बैठे 

जो भी लालच के परिंदे मिले उड़ाते चलो 

जहां  भी जिंदगी  मिले  उसे उठाते चलो

 

लोग  आशा  का  पात्र लेके  रोज  घूम रहे 

किसी इक रोज ही  किसी की कहीं धूम रहे 

जिसे तुम अपना बड़प्पन समझ के फूल रहे 

वह तो बस स्वार्थ से है तुम्हरे चरण चूम रहे 

जिंदगी  की  मशाल को फक्त जलाते चलो 

जहाँ  भी  जिंदगी मिले  उसे  उठाते  चलो 

 

जिन्हें तुम  शत्रु समझते हो जिसे डरते हो 

जिनसे  बचने के कई ताम-झाम  करते हो 

उनसे बच जाओगे उनसे है नहीं डर उतना 

तुम्हें मारेंगे वहीं जिन पे दिल से मरते हो

जो भी लपटे हैं दुश्मनी की वो बुझाते चलो 

जहाँ  भी जिंदगी  मिले  उसे  उठने चलो

 

करते  कमजोर  सदा  तुमको तुम्हारे अपने 

जिन पर  विश्वास करते वो ही लूटते सपने 

जिनके उत्थान की खातिर किये बलिदान बहुत 

उनके  व्याख्यान  हैं अखबार  में लगे छपने 

लिए हो बोझ  जो  औरों का वो गिराते चलो 

जहाँ  भी  जिंदगी  मिले  उसे  उठाते  चलो 

 

पवन तिवारी 

04/11/2024