शुक्रवार, 31 मई 2024

ज़िन्दगी का ठिकाना नहीं



ज़िन्दगी  का  ठिकाना  नहीं

कोई   अपना  बे-गाना  नहीं

कर्म किस्मत का सब खेल है

रोज़  का  आना - जाना नहीं

 

जन्म इक  मृत्यु इक छोर है

बीच  में  ज़िन्दगी  मोर  है

साध पाया है जो इसको खुश

वरना  ये  ज़िन्दगी  शोर है

 

शोर से  ऊब  जाते  हैं जो

मृत्यु के छोर  जाते  हैं वो

आत्महत्या कहे उसको जग

जग नियम तोड़ जाते हैं जो

 

ज़िन्दगी  खेल  है  माँ लो

खेल की भावना  जान  लो

और इस भाव  से खेले जो

मुक्त हो  जाओगे मान लो

 

पवन तिवारी  

३१/०५/२०२४

बुधवार, 15 मई 2024

दर्द ने दर्द इतना बढ़ा है दिया




दर्द   ने  दर्द   इतना  बढ़ा है दिया

मैं हूँ जिंदा  मगर जान है ले लिया

प्यार  भी खेल है पर खतरनाक है

जान ले लेता है  कहने वाला पिया

 

कुछ समझ ही न आता हुआ या किया

बस उसी के लिए  रोता  हँसता जिया

जान  ले  सकते  हैं  जान  दे  सकते हैं

ऐसे  आलम  में  दोनों  के  रहते हिया

 

जब से धोखा हुआ और बिछड़े हैं हम

तब  से चारो दिशाओं में पसरा है गम

रोना - धोना  बहुत  छोटी  सी बात है

आँख  सूजी  हुई   हर घड़ी रहती नम

 

रोज़ ही ख़ुद से ख़ुद ही में होता हूँ कम

ज़िंदादिल  ज़िंदगी  है  गयी   जैसे  थम

अब तो  आशा, उजालों  से  दूरी  बनी

ऐसा  लगता  है  घेरे  खड़ा मुझको तम

 

इसलिए उर से  उर को लगाना नहीं

प्रेम  को  भूले  से  भी  जगाना   नहीं

मन्त्र  जो   दे  रहा  मैं  बड़े  काम का

किंतु आ जाए तो  फिर भगाना नहीं  

 

पवन तिवारी

१५/०५/२०२४       

रविवार, 12 मई 2024

हिसाब क़िताब ज़िंदगी का



बहुत दिनों से पास बैठा है

खालीपन यूँ ही गाड़ के खूंटा

काम तो जैसे मुझसे रूठा है

बहुत दिनों से रात लम्बी है

और इक सुबह कि ठहरती नहीं

आती है और चली जाती है

दोपहर से पुराना झगड़ा है

उसको बस यूँ ही काट देता हूँ

शाम को मैं पसंद करता हूँ

और वो जल्दी भाग जाती है

रात आती है ठहर जाती है

जैसे सीने पे बैठ जाती है

कभी कभी तो ऐसा लगता है

जैसे मेरी साँस अटकी जाती है

जैसे तैसे उसे मनाता हूँ

मेरी अम्मा सुनाती किस्से थी

पर उसे गीत मैं सुनाता हूँ

उसे सुनके, मुझे सुना के

नींद आती है,

इस तरह रात भी कट जाती है

मर के सपनों को कई साल हुए

काले थे जो सफ़ेद बाल हुए

आये थे जब तो लाल चेहरा था

अब तो सूखे से मेरे गाल हुए

मैंने सोचा था कई बार

बहुत कुछ अच्छा

कह भी देता था-

लोग कहते कि अभी है बच्चा

उस बच्चे से मिले

कोई छब्बीस साल हुये

इधर के सालों में उससे बड़े मलाल हुए

मगर अब शांत हूँ, बस ऊबा हूँ.

नहीं ऊपर हूँ बहुत और न ही डूबा हूँ

जो भी थोड़े बहुत कमाल हुये

जो भी श्रम हो सका था हमने किये

नहीं है गम कि हम हमाल हुए

 

 

पवन  तिवारी

१२/०५/२०२४

शनिवार, 11 मई 2024

उम्र ऐसी कि सब ही भाने लगे



उम्र ऐसी कि सब ही भाने लगे

घटा  बादल   क़रीब आने लगे

बहका बहका सा उलझता रहता

धूल - मिटटी सभी सुहाने लगे

 

बाग कोयल की बोल अच्छी लगे

खेत, नदिया की धार अच्छी लगे

जो  भी   देखूँ   वो   मोह  लेता है

देह सरसों, मटर  की अच्छी लगे

 

आज – कल  ठण्ड  मज़ा देती है

और   वृद्धों   को  सज़ा   देती है

प्यारी  लगती  हैं  ओस  की बूँदें

हँसते   मुखड़े  से  लजा  देती है

 

रुखा  सूखा  भी  ख़ुशी  देता है

करता   मनमानी  जैसे  नेता है

लोगों की सुन के अनसुना करता

मन को भाये जो कर ही लेता है

 

आज-कल क्रोध भागा फिरता है

आज कल सबको माफ़ करता है

प्यार   होंठों   से  लिपट   बैठा है

मीठा - मीठा  ही  शब्द झरता है

 

क्या  हुआ  है   पता  नहीं लगता

कुछ तो अच्छा हुआ यही लगता

कोई कुछ  साफ़ बताता भी नहीं

कोई इक बोला मजनूं सा लगता

 

पवन तिवारी

११/०५/२०२४   

 

     

गुरुवार, 9 मई 2024

मेरा चेहरा देख के कितने ही चेहरे मुड़ जाते हैं



मेरा चेहरा देख के कितने ही चेहरे मुड़ जाते हैं

मुझे  देखते ही उनके चेहरे के रंग उड़ जाते हैं

फोन मेरे पहली घंटी के बजते ही कट जाते हैं

मुझे सामने देख परिचितों के चेहरे घट जाते हैं

 

कभी समय था पता पूछते मिलने घर पे आते थे

बिना काम  के यूँ  ही घंटों साथ बैठ बतियात थे

दूर दिखे तो हाथ हिलाते पास में आकर मिलते थे  

हाथ पकड़ कर हाल  पूछते मुखड़े हँसते खिलते थे

 

कभी किसी दिन बच्चों के संग घर पर आओ भइया

कभी  हमें  भी  सेवा  करने का अवसर दो भइया

मेरे  लायक  काम  कोई हो बिना हिचक के कहना

आप  हमारी  टोली  के  हो  सबसे  सुंदर  गहना 

 

अक्सर फोन व्यस्त ही रहता दिन भर भागा दौड़ी

रविवार को  पर मित्रों  संग  कटती चाय पकौड़ी

सबके फोन उठाता था  मैं सबसे मिलता – जुलता

विपति नहीं  पड़ती  तो बोलो राज ये कैसे खुलता

 

समय ने खेल खेल के मुझको जीवन समझाया है

दुःख के इस मौसम में  सुंदर सा अनुभव पाया है

ये  अनुभव  ही  पार  करेगा  मेरी उलझी नइया

धन्यवाद  पहचान  कराया  साथी,  बाबू,  भइया

 

पवन तिवारी

०८/०५/२०२४      

 

पवन तिवारी

०८/०५/२०२४      

मंगलवार, 7 मई 2024

ऐसा लगता मेरे अंदर ज्यों कुछ घोल उठा



ऐसा लगता मेरे  अंदर ज्यों कुछ घोल उठा

सच में लगता है जैसे मोरा मनवा डोल उठा

पर निकले कोई बात नहीं जिह्वा को सूझे ना

पर धीरे से ही लेकिन कोमल दृग बोल उठा

 

मुझ भोले के साथ में ऐसा कैसा जुलुम किया

प्यासा  प्यासा  भटक रहा है जैसे मेरा जिया

 

इतवारी  मेले   में  मैंने  देखा  कुछ तो ऐसा

मेरे भाल पर खींच दिया था किसी ने रेखा जैसा

कैसे  घटना  घटी  मेरी कुछ समझ नहीं आया  

यह भी किस्मत का लेखा था सोच रहा हूँ कैसा

 

मेरे संग क्यों  ऐसा  हो गया मैंने क्या किया

हाय करूँ क्या रह रह जोर से धड़के मेरा हिया

 

कोई कुछ कहता  है कोई डाँट भी देता है

कोई  कहता  झूठा  कोई  कहता नेता है

ऐसे में किससे मैं अपने मन की बात कहूँ

छोटा बड़ा ही हर कोई मेरी फिरकी लेता है

 

सब कहते थे बुद्धू तूने भी क्या जान लिया

किस्मत  मेरे साथ ये तूने कैसा खेल किया

 

मजनू भइया मिले तो बोले मुझको भोग लगा

फिर  बतलाऊँगा  तुझको  मैं कैसा रोग लगा

मेले में  तुझे रूप ने मारा  मोह लिया तुझको

अंधों को क्या पता तुझे तो प्रेम का जोग लगा

 

मैं   इतना   बुद्धू    कैसे  हूँ   बनना   मुझे  पिया

यह सुनकर उर हँसकर बोला बड़का रोग लिया

 

पवन तिवारी

०७/०५/२०२४

    

धर्म कहाँ विचरण करता है



धर्म कहाँ विचरण करता है

वह  जीवन में क्या धरता है

दिखने   में  कैसा लगता है

वह मानव  में क्या भरता है

 

सत्य में ये  विचरण करता है

सदाचार   को  यह  धरता है

आनन पर  इक भास्वरता है

मात्र  ये   मानवता   भरता है

 

ठगता   जो  वो  धर्म   नहीं है

जिसका अच्छा  कर्म  नहीं है

जिसको  अंतः   ज्ञान  नहीं है

सत्य का जिसको भान नहीं है

 

ब्रह्मचर्य,   अस्तेय,    दान,  तप

शान्ति, अहिंसा, संयम का जप

जहाँ स्वच्छता  कण कण में हो

क्षमा  जहाँ प्रति प्रति क्षण में हो

 

यदि  मैं  कहूँ   तो  सदाचार  है

शेष   उलट   में   अनाचार   है

कलि  का  परिचय कदाचार है

यह सब  कलि  का नवाचार है

 

पवन तिवारी

०३/०५/२०२४