रविवार, 12 मई 2024

हिसाब क़िताब ज़िंदगी का



बहुत दिनों से पास बैठा है

खालीपन यूँ ही गाड़ के खूंटा

काम तो जैसे मुझसे रूठा है

बहुत दिनों से रात लम्बी है

और इक सुबह कि ठहरती नहीं

आती है और चली जाती है

दोपहर से पुराना झगड़ा है

उसको बस यूँ ही काट देता हूँ

शाम को मैं पसंद करता हूँ

और वो जल्दी भाग जाती है

रात आती है ठहर जाती है

जैसे सीने पे बैठ जाती है

कभी कभी तो ऐसा लगता है

जैसे मेरी साँस अटकी जाती है

जैसे तैसे उसे मनाता हूँ

मेरी अम्मा सुनाती किस्से थी

पर उसे गीत मैं सुनाता हूँ

उसे सुनके, मुझे सुना के

नींद आती है,

इस तरह रात भी कट जाती है

मर के सपनों को कई साल हुए

काले थे जो सफ़ेद बाल हुए

आये थे जब तो लाल चेहरा था

अब तो सूखे से मेरे गाल हुए

मैंने सोचा था कई बार

बहुत कुछ अच्छा

कह भी देता था-

लोग कहते कि अभी है बच्चा

उस बच्चे से मिले

कोई छब्बीस साल हुये

इधर के सालों में उससे बड़े मलाल हुए

मगर अब शांत हूँ, बस ऊबा हूँ.

नहीं ऊपर हूँ बहुत और न ही डूबा हूँ

जो भी थोड़े बहुत कमाल हुये

जो भी श्रम हो सका था हमने किये

नहीं है गम कि हम हमाल हुए

 

 

पवन  तिवारी

१२/०५/२०२४

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