सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

प्रेम में जिन्हें छल मिले हैं



प्रेम में जिन्हें छल मिले हैं

आज  वाले  कल  मिले हैं

बासी  रोटी  भूख  में  

जूठे जिनको  जल मिले हैं

ऐसों  को  मत  त्रास देना

प्रश्न    भी     करना   नहीं

 

विरह   में  जो  रो  रहे  हों

अपनापन  जो खो रहे हों

विवश  होकर  ज़िंदगी से

आधा   जिंदा  जो  रहे हों

ऐसों  को मत  त्रास  देना

प्रश्न   भी     करना   नहीं

 

अपनों  के  मारे  हुए जो

अपनों  के  चारे  हुए जो

है परिस्थिति मृत्यु की पर

साँस  को  धारे  हुए  जो

ऐसों को मत  त्रास  देना

प्रश्न    भी    करना  नहीं

 

रात  जो  बे-घर  हुए  हैं

बारिशों  में  तर  हुए  हैं

जो अभी अपमान सहकर

नैन  से   निर्झर  हुए  हैं

ऐसों  को  मत त्रास देना

प्रश्न   भी   करना   नहीं

 

पवन तिवारी

१२/०२/२०२४  

 

 

 

रविवार, 11 फ़रवरी 2024

बिन मांगे ही पाने वाले


बिन  मांगे   ही  पाने  वाले

क्या जाने श्रम  वाला ठेला

कातर दुःख को गाने वाले

क्या जाने खुशियों का रेला

जिनसे दुनिया  ही रूठी है

क्या जाने  अपनों का मेला

 

सर्द का मौसम फटी बिवाई

वो   ही    जाने   पीर   पराई

पहने   कोट  अलाव  तापते

वो  क्या जाने ठिठुरन भाई

सावन   में   पूछा    भैंसे  से  

बोला  जी  हरियाली  छायी

 

साहब   बोले   तेज   हवा   है

उनको क्या कि आँधी आयी

झुनिया की तो छप्पर उड़ गयी

रोये    कह   के   माई – माई

पूरा    गाँव    घूम    आई   है

मिला  नहीं  एक  भी हिताई

 

जो जैसा  उसे वैसा दिखता

अच्छा   बुरा  दृष्टि  पे   भाई

अब तो और ज़माना बदतर

खा करके  भी  करें  बुराई

नेकी  कर   बदनामी  पाते

ख़ुशी  को तरसें पाई–पाई

 

पवन तिवारी

११/०२/२०२४      

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

वसीयत: अंतिम इच्छा !


 


मेरी अंतिम इच्छा है, मृत्यु!

जब मेरे रक्त संबंधियों ने

मुझे मान लिया था ‘अस्तित्त्व’हीन

परिवार ने कह दिया था

निकम्मा, नकारा, कामचोर और भी

इसी पक्ष के शब्द!

मेरा लिखना ‘काम, की श्रेणी से

खारिज रहा और मुझे  

घोषित किया गया विक्षिप्त!

तब मैंने मरने की इच्छा को

बलवती होते देखा था अपने अंदर!

 अब जब! तब से

बीत गये पूरे चार साल,

वह इच्छा उतनी ही बलवती है.

तारीख़ बता रही है

अब मुझे वर्ष ४२ !

सोचता हूँ,  

१६ साल में विदा हुए ज्ञानेश्वर,  

विवेकानंद शरीर छूटा वर्ष ३९ में,

शंकराचार्य का २९ में,

हमारे ही कवि कुल अग्रज

शिव कुमार बटालवी, धूमिल,

रांगेय राघव!

इन सबसे बूढ़ा हो चुका है

मेरा यह शरीर!

इधर के चार सालों में

कई - कई पन्ने किये काले;

कुछ पाठकों ने

उन्हें पढ़कर किये पीले!

वही पीले करने वाले

मेरे अपने हैं.

मेरी अंतिम इच्छा पूरी होने पर

मेरे अपनों दुखी मत होना !

मनाना खुशियाँ!

बच्चों को खिलाना रसगुल्ले,

क्योंकि मुझे बचपन में

किसी ने नहीं खिलाये रसगुल्ले!

मैं खुश होता तो

निश्चित ही रसगुल्ले खाता,

तुम बच्चों को देना

मेला जाने के लिए पैसे!

तुम नंगे पैरों वाले बच्चों को

पहनाना जूते!

तुम खुले बदन बच्चों को

पहनाना पैंट और बू-शर्ट.

मेरी अंतिम इच्छा पूरी होने पर

मेरे अपनों! इस तरह मनाना ख़ुशी,

क्योंकि यही है मेरी अंतिम इच्छा !

मेरे इस लिखे को

मत समझना कविता;

समझना मेरी वसीयत !

 

पवन तिवारी

०७/०२/२०२४        

तोड़ कर अवरोध सारे




तोड़  कर  अवरोध सारे

तुम मुझे अधिकार दे दो

कर सकूँ  संवाद उर का

थोड़ा सा तुम प्यार दे दो

 

मुस्कुराएँ अधर  कह दो

छोड़कर  सारी  व्यथाएं

त्रास सारा  हर ही लूँगा

पग तो  मेरी और आएं

 

प्रेम  का  उपहास करना

जग का पहला आचरण है

निम्न क्या समझेंगे इसको

उच्च  इसका व्याकरण है

 

लोक में यह ही परम है

इससे आगे कुछ नहीं है

इससे आगे परम ईश्वर

इससे  आगे  कुछ नहीं

  

पवन तिवारी

०६/०२/२०२४

एक लेखक या कवि

 




एक लेखक या कवि

रोज थोड़ा-थोड़ा मरता है.

और भरता है थोड़ा थोड़ा जीवन

अपनी कहानी और कविता में !

वो साहित्य भरता है- समाज में,

मनुष्यता में थोड़ा - थोड़ा जीवन

एक दिन साहित्यकार थोड़ा - थोड़ा

मरते - मरते मर जाता है !

मर जाती है उसकी काया किंतु,

वह अपने साहित्य से

समाज में थोड़ा - थोड़ा

जीवित होते – होते पूरी तरह

जी उठता है और फिर वह

हमेशा के लिए न केवल

जीवित रहता है बल्कि

रहता है सदा प्रसन्न और जीवंत

और कहाता है महान,

बिना किसी काया के !


पवन तिवारी

३०/०१/२०२४