शनिवार, 30 जुलाई 2022

दिन कटता है तो, संध्या उलझ जाती है

दिन कटता है तो,

संध्या उलझ जाती है .

वो कटती है तो,

रात उलझ जाती है.

इसमें नन्हा दीपक

लड़ते हुए फँसकर

मर जाता है.

बचाते - बचाते

बाती जल जाती है !

और तो और; दीया,

काली हो जाती है.

ज़िंदगी जब

रूठकर आती है ,

पीड़ा भी ठीक से

नहीं बतियाती है.

फिर, आँख गरियाती है.

लगातार झरती जाती है.

समय की मार

इस तरह सताती है .

ज़िंदगी, ज़िंदगी से घबराती है.

मौत पास होकर भी

छूने से घबराती है .

तभी अंदर से

जीने की ज़िद

आवाज़ देती है !

फिर तो,

दुनिया ही बदल जाती है.

 

पवन तिवारी

१९/०६/ २०२२

  

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