गुरुवार, 16 जून 2022

गुर्राते कभी मेघ विहंसते

गुर्राते कभी मेघ विहंसते

होकर गीले खेत हैं हँसते

हरित लवक चहुँ ओर दिखे हैं

प्रेमी इनके जाल में फँसते 

 

दोपहरी  को  शाम  बनायें

मेघ  हर्ष  से  जब भी आयें

ये छूते गर्मी छू मन्तर

मोर भी नाचें जब ये गायें

 

मेढक तान छेड़ देते हैं

केंचुए अंगड़ाई लेते हैं

हरी भरी काई हो जाती

नाविक भी नइया खेते हैं

 

बिन मतलब के तुम झरते हो

हे घन तुम कैसे करते हो

लोग नीर नयनों में देते

तुम जीवन में जल भरते हो

 

 

तुम हो जंगल नदी सजाते

कृषकों के घर ढोल बजाते

तुम प्रकृति के मेरुदंड हो

तृण से तरु तक सब तुम्हें गाते

 

तालाबों  के  घर  भर  जाते

ताल तुम्हें हँस-हँस के रिझाते

सावन  तो  आभार  जताता

पशु पक्षी सब जन सुख पाते

 

पवन तिवारी

२३/०८/२०२१

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