गुर्राते
कभी मेघ विहंसते
होकर
गीले खेत हैं हँसते
हरित
लवक चहुँ ओर दिखे हैं
प्रेमी
इनके जाल में फँसते
दोपहरी को
शाम बनायें
मेघ हर्ष
से जब भी आयें
ये
छूते गर्मी छू मन्तर
मोर
भी नाचें जब ये गायें
मेढक
तान छेड़ देते हैं
केंचुए
अंगड़ाई लेते हैं
हरी
भरी काई हो जाती
नाविक
भी नइया खेते हैं
बिन
मतलब के तुम झरते हो
हे
घन तुम कैसे करते हो
लोग
नीर नयनों में देते
तुम
जीवन में जल भरते हो
तुम
हो जंगल नदी सजाते
कृषकों
के घर ढोल बजाते
तुम
प्रकृति के मेरुदंड हो
तृण
से तरु तक सब तुम्हें गाते
तालाबों
के
घर भर जाते
ताल
तुम्हें हँस-हँस के रिझाते
सावन तो
आभार जताता
पशु
पक्षी सब जन सुख पाते
पवन
तिवारी
२३/०८/२०२१
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